संस्कृति एक व्यापक शब्द है। उसके अंतर्गत मनुष्य का आचरण, उसका भावजगत, विचारधारा, साहित्य, कला, विज्ञान – ये सभी आ जाते हैं। ब्रह्म की तरह संस्कृति व्यक्त और अव्यक्त दोनों हैं। वाल्मीकि और व्यास के महाकाव्य, अजन्ता और एल्लोरा का शिल्प, स्थापत्य, और चित्रकारी, त्यागराज और तानसेन का संगीत, ये सब संस्कृति के अंग हैं और वह उल्लास जो दीपावली के प्रकाश में फूट पड़ता है, वह शूरता जो 1857 और 1946 के विद्रोहों में प्रकट हुई थी, शांति और न्याय का वह प्रेम जो आज कोटि-कोटि, भारतीय जनता को सोवियत और चीन के साथ विश्व-शांति की रक्षा के लिए आगे बढ़ा रहा है, वह सब भी संस्कृति का अंग है।
अपने सुदीर्घ जीवन में मनुष्य ने ऐसी सांस्कृतिक निधि अर्जित की है जो मानव-मात्र की संपत्ति है। बच्चों से प्यार, नारी जाति का सम्मान, मनुष्य-मात्र की समानता का भाव आदि आज सम्पूर्ण मानव-संस्कृति की थाती हैं। इसके साथ पच्छिम और पूर्व की, यूरोप और एशिया की, भारत और ब्रिटेन की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। अपनी प्राचीनता पर गर्व, पूर्व और एशिया की एक सांस्कृतिक विशेषता है। साहित्य में यथार्थवाद का विकास ब्रिटेन की एक सांस्कृतिक विशेषता है। अनेक विभिन्नताओं में एकता की अनुभूति – यह भारत की सांस्कृतिक विशेषता प्रसिद्ध है। देशों और महाद्वीपों के साथ वर्गों की अपनी संस्कृति भी होती है। विलासप्रियता, निष्क्रियता, अलंकार प्रेम, साहित्य में चमत्कारवाद – हर देश में सामंतवर्ग की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएँ रही हैं।
मनुष्य का सांस्कृतिक विकास उसके सामाजिक जीवन से ही संभव हुआ है। मानव-संस्कृति मानव-जीवन से भिन्न नहीं है। मनुष्य ने अपना मानवत्व सामाजिक जीवन द्वारा ही प्राप्त किया है। यह सामाजिक जीवन सदा एक रूप में संगठित नहीं हुआ। भारत में जिस व्यवस्था से लोग बहुत दिनों से परिचित हैं, वह वर्ण-व्यवस्था है। इसे धार्मिक ग्रंथों में ईश्वरकृत भी माना गया है। लेकिन आज भी देश में ऐसे अनेक जन रहते हैं जो पहाड़ों और जंगलों में कबीलों का संगठन बना कर जीवन बिताते हैं और जिनमें वर्णव्यवस्था नहीं है। समाज शास्त्र के अनुसार कबीलों का यह संगठन, विकास क्रम में वर्णव्यवस्था से पहले आता है। हम लोग समझते हैं कि वर्ण-व्यवस्था हमारे देश की विशेषता है। वास्तव में हर देश का सामंती समाज मोटे तौर से चार वर्णों जैसे चार वर्गों में बँटा हुआ मिलता है।
मिसाल के लिए चौसर के समय और उसके पहले का इंग्लैंड पुरोहितों (क्लर्जी), भूमि के स्वामियों (नाइट), सौदागरों (मर्चेट) और ज़मीन जोतने वाले किसानों (सर्फ़) में बँटा हुआ था। व्यापार और उद्योग-धंधों की बढ़ती के साथ यह व्यवस्था हर जगह टूटी है। जो लोग इस व्यवस्था से पीड़ित थे, उन्होंने इसके टूटने में सहायता की, जो प्राचीनता-प्रेमी और रूढ़िवादी थे, उन्होंने इस विनाश को कलियुग का अनाचार कहा। आज भी अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो भारत की विपत्तियों का मूल कारण यह मानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था से जनता की आस्था उठ गयी है। वे बड़ा प्रयत्न करते हैं कि पुरानी व्यवस्था फिर लौट आये, जितनी बची है, उतनी ही कायम रहे लेकिन जैसे-जैसे ज़मीन से सामंती प्रभुत्व उठता जाता है, वैसे-वैसे भूपाल और उसके साथ पुरोहित पर से वह पुरानी श्रद्धा भी उठती जाती है और उसकी जगह नये वर्ग-संबंध कायम होते जाते हैं। यह क्रम भारत में जातियों (नैशनैलिटी) के संगठन और उनके दृढ़ होने का क्रम भी है।
भारत में वर्ण-व्यवस्था का विरोध और उस व्यवस्था के टूटने पर आपत्ति – ये दोनों बातें बहुत पुरानी हैं। कबीर के समय से ही ये दोनों बातें साहित्य में खूब उभर कर आयी हैं। हिंदी, बंगला, मराठी, पंजाबी, काश्मीरी आदि भाषाओं में भक्ति-आंदोलन मनुष्यमात्र की समानता घोषित करने वाला एक व्यापक और शक्तिशाली आंदोलन था। यह आंदोलन वर्गों और मतमतांतरों में बँटे हुए सामंती समाज की व्यवस्था के विरुद्ध था, और इस व्यवस्था के कमज़ोर होने से वह उत्पन्न हुआ था। ग़रीब किसानों, कारीगरों, सौदागरों आदि की सक्रिय सहानुभूति से उसका प्रसार हुआ था। प्राचीन रूढ़िवाद जहाँ धार्मिक कर्मकांड को महत्व देता था, वहाँ यह आंदोलन प्रेम को भक्ति और मुक्ति का आधार मानता था। कबीर, तुलसी, सूर और जायसी में सामान्य भाव-धारा इस प्रेम की ही है। प्राचीन रूढ़िवाद जहाँ म्लेच्छ और काफ़िर, द्विज और शूद्र के भेद को महत्व देता था, वहाँ भक्ति-आंदोलन का मूल स्वर था – ‘जाति-पाँति पूछे नहिं कोई, हरि का भजै सो हरि का होई।’
भक्ति-आंदोलन श्रद्धा के मानदंड बदल रहा था, भूमि के स्वामी होने से तुम श्रद्धास्पद नहीं हो, श्रद्धा की कसौटी है प्रेम! उस कसौटी पर साधारण किसान बड़े-बड़े भूपतियों से श्रेष्ठ सिद्ध हो सकता है।
झूमत द्वार अनेक मतंग जंजीर जरे मंद-अंबु चुचाते।
तीखे तुरंग मनो गति चंचल पौन के गौनहुतै बढ़ि जाते॥
भीतर चन्द्रमुखी अवलोकति बाहर भूप खड़े न समाते।
ऐसे भयें तो कहा तुलसी जु पै जानकीनाथ के रंग न राते॥
इसी तरह ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से या पुरोहिताई करने से तुम श्रद्धास्पद नहीं हो। असली कसौटी है प्रेम की, जहाँ शबरी, निषाद और ‘जायो कुलमंगन’ तुमसे श्रेष्ठ सिद्ध हो सकते हैं।
जप, जोग, विराग, महा मखसाधन, दाव, दया, हम कोटि करै।
मुनि सिद्ध, सुरेस, गनेस, महेस से सेवत जन्म अनेक मरै।
निगमागम ज्ञान पुरान पढ़ै, तपसानल में जुग पुंज जरै।
मन सों पन रोपि कहैं तुलसी रघुनाथ बिना दुख कौन हरै?
इस तरह श्रद्धा की कसौटी बदल कर भक्ति-आंदोलन ने सामंतों और पुरोहितों के प्रभुत्व को भारी धक्का लगाया।
सामंती व्यवस्था में जहाँ नारी को विलास और केलि का साधन बना दिया गया- जिसका प्रतिबिंब दरबारी कवियों का नायिका-भेद है – और रूढ़िवाद ने नारी को बहुपत्नी प्रेमी नर की दासी बना दिया था, वहाँ सूर, जायसी, मीरा और तुलसी ने उसके नारीत्व की फिर प्रतिष्ठा की, उसकी मानव सुलभ समानता और व्यक्तित्व की घोषणा की। रामराज्य में – ‘एक नारि व्रत रत सब झारी। ते मनं बच क्रम पति हितकारी।’ पतिव्रत पत्नीव्रत के साथ ही चलता है।
सामंत व्यवस्था ने मनुष्य की सौंदय-वृत्तियों को, उसके अनेक मानव-मूल्यों को जहाँ दबा रखा था, भक्ति-आंदोलन ने इन सबको निखारा और विकसित किया।
सामंती व्यवस्था ने जहाँ मनुष्य को निष्क्रियता और भाग्यवाद का पाठ पढ़ाया था, भक्ति-आंदोलन ने राम और कृष्ण के चरित्रों द्वारा जनता को अन्याय का सक्रिय प्रतिरोध करना सिखाया।
भक्ति-आंदोलन से पहले जहाँ साहित्य रचने का काम मुख्यतः ब्राह्मणों ने किया था, वहाँ भक्ति-साहित्य में जुलाहे, अछूत, मुसलमान, ब्राह्मण-अब्राह्मण, नर-नारी सभी ने भाग लिया और वह वास्तव में एक लोकप्रिय जन-साहित्य बन गया। संस्कृति की ठेकेदारी किसी वर्ण-विशेष या धर्म-विशेष के हाथ में न रह गयी।
इन कारणों से भक्ति-आंदोलन को मूलतः सामंत विरोधी आंदोलन कहना उचित है। वह सामंती व्यवस्था के विरोध में उठ खड़ा हुआ था, उस व्यवस्था के कमज़ोर होने से पैदा हुआ था। यह आंदोलन हमारी जातीयता के अभ्युदयकाल का प्रगतिशील आंदोलन था।
आज अपनी जातीय संस्कृति का विकास करने के लिए उसके महत्व को समझना आवश्यक है। वह इस बात का प्रमाण है कि उत्तर भारत में सामंती व्यवस्था नष्ट हो रही थी और साहित्य इस कार्य में सहायक था।
सामंती व्यवस्था के ह्रास के साथ भारत की आधुनिक भाषाओं का उत्थान जुड़ा हुआ है। ये भाषाएँ सामंती व्यवस्था के ह्रास के कारण पैदा नहीं हुई, भाषाएँ पहले से थीं, उन्हें अब अपने प्रसार और विकास का अवसर मिला। संस्कृत जहाँ धर्म और साहित्य की भाषा थी, फ़ारसी जहाँ राज-भाषा थी, वहाँ उत्तर भारत के संत कवि बोलचाल की भाषाओं को माध्यम बनाकर आगे बढ़े। संस्कृत या फ़ारसी की जगह अनेक भाषाओं के विकास से भारत की एकता टूटी नहीं, वह और दृढ़ हुई, क्योंकि जनता की शिक्षा और उसका सांस्कृतिक विकास उसकी भाषा द्वारा ही संभव है। सुशिक्षित और सुसंस्कृत जनता ही एकता का सबसे दृढ़ आधार है। इसीलिए जो लोग अंग्रेज़ी द्वारा भारत की एकता बनाये रखना चाहते हैं, वे एकता के दृढ़ आधार को नहीं समझते, वे जनता की शक्ति नहीं पहचानते।
जो लोग बंगाल या महाराष्ट्र में बंगला या मराठी के बदले हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते हैं, वे भारत की आधुनिक भाषाओं के विकास का महत्व नहीं समझते, वे इन भाषाओं द्वारा जनता के शिक्षण और सांस्कृतिक विकास का मूल्य नहीं पहचानते। जिस समय संस्कृत द्वारा एकता की रक्षा करने वाले पराजित हो चुके थे, उस समय बोलचाल की भाषाओं द्वारा ही भक्त कवियों ने जनता के जातीय आत्मसम्मान को जगाया था और उसकी रक्षा की थी। इस ऐतिहासिक श्रम-विकास को रोकना आज किसी की सामर्थ्य में नहीं है।
भाषा और साहित्य का इतिहास यह बतलाता है कि 16वीं-17वीं सदी में ब्रज, खड़ीबोली, अवधी आदि के क्षेत्र अपना अलगाव दूर करके एक दूसरे के निकट आ रहे थे। यही कारण है कि सूर के पद केवल ब्रज की संपत्ति न थे, वे ब्रज के बाहर भी गाये जाते थे। संगीत और कविता के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग सर्वमान्य-सा हो गया था। इससे पहले विभिन्न जनपदों के लेखक संस्कृत में लिखते थे, तब से अब में अंतर यह था कि संस्कृत के छंद गाँवों के किसान वैसे न गाते थे जैसे अब वे सूर के पद गाते थे। ब्रजभाषा का साहित्य जन साधारण में प्रचलित हो रहा था और इस तरह विभिन्न जनपदों के लोगों को एक दूसरे के निकट ला रहा था।
इसी तरह अवधी की रचनाएँ अवध तक सीमित न रहीं, विशेषरूप से रामचरितमानस का प्रचार अवध के बाहर दूर-दूर तक हुआ। इस तरह यह महान् ग्रंथ जनपदों का अलगाव दूर करने और उन्हें एक दूसरे के निकट लाने का बहुत बड़ा साधन बना।
तुलसीदास ने ब्रज और अवधी दोनों में रचनाएँ कीं और यह बात अपने आप इस ऐतिहासिक सत्य की ओर संकेत करती है कि ब्रज और अवध जैसे जनपदों की जनता एक दूसरे के निकट आ रही थी। इस समय की काव्य-भाषा में एक से अधिक बोलियों के शब्द आना, यहाँ तक कि अनेक बोलियों के व्याकरण-रूपों का आना भी असाधारण बात नहीं है। इसका कारण यही है कि जनपदीय बोलियों का दुराव ख़त्म हो रहा था और वे एक दूसरे को प्रभावित कर रही थीं।
आगे चल कर इन जनपदों की एक सामान्य जातीय भाषा न तो ब्रज हुई, न अवधी, जातीय भाषा के रूप में विकसित हुई खड़ी बोली। सूर और तुलसी जैसे समर्थ कवियों की सहायता पा कर भी ब्रज या अवधी यहाँ की जातीय भाषा क्यों न बनी और खड़ी बोली क्यों बनी, इसके ऐतिहासिक कारण हैं। ब्रज के बाहर ब्रजभाषा का प्रसार केवल साहित्यिक भाषा के रूप में हुआ, बोलचाल की भाषा के रूप में नहीं। यही बात अवधी के साथ भी हुई। बोलचाल की भाषा के रूप में केवल खड़ी बोली अपने क्षेत्र से बाहर फैली। तभी तो 19वीं सदी में गद्य, शिक्षा और मासिक पत्रों आदि की भाषा खड़ी बोली स्वीकृत हो गयी और ब्रज, अवधी आदि को लेकर कोई संघर्ष न हुआ। काव्य में ब्रजभाषा को बनाये रखने के लिए संघर्ष किया गया, वह असफल रहा। कारण यह कि खड़ी बोली हमारी जातीय भाषा के रूप में विकसित हो रही थी और काव्य में उसका उपयोग आगे-पीछे होना ही था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र और रामचंद्र शुक्ल ने खड़ी बोली के प्रसार का संबंध पच्छिम से पूर्व की ओर आने वाली व्यापारी जातियों से जोड़ा था। यह स्थापना सही है। आगरा, प्रयाग, काशी आदि में न जोने कितने व्यापारी पछाँह से आकर बसे थे। स्वयं दिल्ली और आगरा व्यापार के बहुत बड़े केंद्र थे। ग्रियर्सन के ‘लिग्विस्टिक सर्वे’ से पता चलता है कि यूरोप के व्यापारी अपनी सुविधा के लिए खड़ी बोली सीखते थे। व्यापार के प्रसार के साथ भारत के भीतर खड़ी बोली का महत्व बढ़ा। सरदेसाई के अनुसार इटालियन यात्री मनुच्ची और शिवाजी की बातचीत खड़ी बोली में हुई थी। शेरशाह के समय से ही हिंदी भाषी क्षेत्र में व्यापार का प्रसार आरंभ हो गया था। अकबर ने एक तरह के सिक्के चला कर, यायायात के साधनों को सुरक्षित करके व्यापार की उन्नति में सहायता की।
16वीं सदी में व्यापार और औद्योगिक उन्नति का सबसे बड़ा प्रमाण बड़े-बड़े शहरों का निर्माण और विकास था। दिल्ली, झिरा, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, पटना आदि व्यापार के बड़े-बड़े केंद्र थे, इन्हीं केंद्रों से खड़ी बोली का प्रसार भी हुआ। उद्योग-धंधों का मुख्य आधार दस्तकारी थी, लेकिन इस दस्तकारी का उद्योग राजाओं और नवाबों की विलासिता की चीजें तैयार करना ही न था, न यह दस्तकारी हर गाँव में सीमित रह कर उसी की ज़रूरतें पूरा करने के लिए थी। बनारस, लखनऊ और आगरा दस्तकारों के केंद्र थे और यहाँ की बनी हुई चीजें विदेश में इतनी बिकती थीं कि वहाँ के अपने उत्पादन के लिए ख़तरा पैदा हो गया था। उद्योग-धंधों का बढ़ाना, व्यापार की मंडियों के रूप में बड़े-बड़े शहरों का पनपना सामंती अलगाव कम करता था और जनता को एक सूत्र में बाँधता था।
यह हिंदी-भाषी जाति के निर्माण का सिलसिला था। यह सिलसिला सामंती ढाँचे के अंदर चल रहा था। यह ढाँचा कमज़ोर था और दिन-पर-दिन अपने भीतर उभरती ताकतों से कमज़ोर होता जा रहा था लेकिन वह चरमरा कर बैठ न गया था, उसका नाश न हुआ था कि उसकी जगह नया पूँजीवादी ढाँचा आकर जम जाता। व्यापार की मंडियाँ मुख्यतः गंगा-यमुना के किनारे कायम हुईं, इसलिए पूर्वी भोजपरी और मैथिल प्रदेश व्यापारी संबंधों की लपेट से प्रायः बचे रहे। यातायात के साधन हर जगह एक से विकसित न हुए थे, इसलिए मध्यभारत इस विकास से बहुत कुछ अलग रहा। बीसवीं सदी में नये उद्योगधंधों के कायम होने के साथ विकास का यह सिलसिला और बढ़ा और मध्यभारत तथा मिथिला, भोजपुर आदि एक सामान्य जातीय जीवन की धारा के और निकट आए। यह विकास औपनिवेशिक भारत में हो रहा था, जहाँ अंग्रेज़ शासक वर्ग की नीति यह थी कि औद्योगिक उन्नति रोक कर भारत को अंग्रेज़ी माल की खपत के लिए बाज़ार बनाया जाय और यहाँ के सामंती अवशेषों को अपना सहायक बना कर उनकी रक्षा की जाय। इसलिए यह औद्योगिक विकास बहुत ही सीमित था और उसके साथ हमारे जातीय निर्माण और गठन का काम भी अधूरा रहा।
हमारे जातीय निर्माण की एक विशेषता यह थी कि यहाँ सैकड़ों साल तक फ़ारसी राज-भाषा रह चुकी थी। इसका फल यह हुआ कि उच्च वर्गों में फ़ारसी पढ़ी-पढ़ाई जाती थी और सुसंस्कृत शब्दावली वह समझी जाती थी जिसमें फ़ारसी के शब्द अधिक हों। इसलिए एक ओर नज़ीर और मीर जैसे सरल उर्दू लिखने वाले कवि हुए, दूसरी ओर फ़ारसी गर्भित उर्दू लिखने वालों की कमी न थी। अंग्रेज़ी ने इस भाषा-भेद को – जिसमें लिपि-भेद भी शमिल था – और आगे बढ़ाया और विशेष रूप से जब सन् 1857 में उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को अपने विरुद्ध मिल कर लड़ते देखा, तब उन्होंने यह भेद-भाव बढ़ाने में अपनी ओर से कुछ उठा न रखा। कचहरी और पुलिस के द्वारा उन्होंने वह अरबी प्रधान-भाषा चलायी जो उनके जातीय उत्पीड़न की नीति का अंग बन गयी। इधर अनेक जनपदों में कुछ लोगों ने अलगाव का नारा दिया। जातीय विकास की धारा न समझ कर इन्होंने बोलियों को भाषा का दर्जा दिया, इन बोलियों के क्षेत्रों को जातीय प्रदेश माना, यहाँ तक कि हिंदी-भाषी प्रदेश को तेरह क्षेत्रों में बाँटने की योजना भी सामने रखी।
हिंदी-भाषी क्षेत्र में वर्ण-व्यवस्था का अब भी ज़ोर है। यहाँ के शिक्षा केंद्रों में कौन ब्राह्मण है, कौम कायस्थ है, यह प्रश्न बड़े महत्व का है। यही नहीं बहुतों में अहीर, जाट, गूजर, राजपूत आदि के प्रति वफ़ादारी पहले है, समूची हिंदी-भाषी जाति के लिए बाद को। इन्हीं कारणों से हिंदी भाषी क्षेत्र में जिस जातीय चेतना का विकास होना चाहिए था, वह नहीं हुआ।
जातियों का विकास और निर्माण सामंती व्यवस्था के ह्रास और पतन से ही संभव होता है। इसलिए जातीय चेतना का विकास भी सामंती विचार धारा का खंडन करता है, अपना प्रगतिशील मूल्य रखता है। अंग्रेज़ शासकों ने यहाँ का औद्योगिक विकास रोका, यहाँ के सामंती अवशेषों की रक्षा की, नवाबों, राजाओं और ताल्लुकदारों की रियासतें बनाये रखकर जातीय एकता क़ायम होने में बाधा डाली। उदाहरण के लिए निज़ाम की रियासत के कारण तेलुगु-भाषी जाति एक न हो पायी। कन्नड़ और मराठीभाषी जातियाँ भी इसी तरह एक न हो पायीं। एक ही जाति को उन्होंने कई प्रांतों में बांट दिया, जिसकी सबसे बड़ी मिसाल हिंदी-भाषी प्रदेश है। बोलियों का ध्यान भी रखा जाय तो भोजपुरी का आधा क्षेत्र बिहार में है, आधा उत्तर प्रदेश में। बिहार को उन्होंने कभी बंगाल के साथ रखा, कभी बंगाल का थोड़ा-सा हिस्सा बिहार में मिला दिया। बंगाल का विभाजन करने की कोशिश की, जो पहले असफल रही और सन् 47 में सफल हई। कांग्रेस ने अपनी सूबा-कमेटियाँ मुख्य भाषाओं को ध्यान में रखकर बनायीं, अपवाद केवल हिंदी-भाषी प्रदेश था। मुख्य भाषाओं के हिसाब से प्रांतों का नया संगठन करने की माँग उचित थी, इस माँग के पूरा होने से भारत की प्रमुख जातियों का ऐतिहासिक विकास क्रम आगे बढ़ता था। इस विकास क्रम में सामंती अवशेषों के सिवा दूसरी बाधा थी – साम्राज्यवाद, जो अपनी कूटनीति से जातियों को संगठित न होने देता था। इसलिए जातीय गठन और जातीय चेतना के विकास का एक साम्राज्य विरोधी मूल्य भी है। जातीय विकास क्रम को पूरा करना देश-भक्ति का ही कार्य माना जाएगा।
जातीय चेतना का सही मूल्यांकन करके ही भारतीय एकता दृढ़ की जा सकती है। भारतीय एकता जनता की एकता के सिवा, विभिन्न वर्गों की एकता के सिवा, विभिन्न भाषाएँ बोलने वाली जातियों की एकता भी है। विभिन्न जातियों की परस्पर एकता उनके उचित अधिकर मान कर ही की जा सकती है। तेलुगू-भाषी जनता ने जातीय गठन का सवाल बहुत तीखे ढंग से देश के सामने रखा है। आन्ध्र राज्य के निर्माण के लिए पोत्ती श्री शमुलु जैसा अहिंसावादी शहीद हो गया। इससे अनुमान किया जा सकता है कि जातीय भावना कितनी दृढ़ है। कांग्रेसी नेताओं को बाध्य होकर राज्य पुनर्गठन समिति बनानी पड़ी। इस समिति ने केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि राज्य बनाने का अनुमोदन किया। महाराष्ट्र और आन्ध्र के निर्माण में जो बाधाएँ थीं, उनसे फिर असंतोष बढ़ा और कांग्रेसी नेतृत्व ने विशाल आन्ध्र के तुरंत बनने की माँग स्वीकार की।
यहाँ भाषा और बोली के संबंध पर दो शब्द कह देना आवश्यक है। किसी भी देश में जातीय भाषा के विकास के साथ बोलियाँ ख़त्म नहीं हो जातीं। ब्रिटेन, फ्रांस जैसे उद्योग प्रधान देशों तक में वेल्श, प्रोवाँसाल आदि बोलियाँ कायम हैं जो व्याकरण की दृष्टि से भी जातीय भाषा- अंग्रेज़ी या फ्राँसीसी – से भिन्न हैं। हमारे देश में ही तेलंगाना की तैलगू और विजयवाड़ा की तैलगू, पूर्वी बंगला और कलकत्ते की बंगला में अंतर है। इसका अर्थ यह नहीं कि पूर्वी बंगाल या तेलंगाना के लोगों की जातीय भाषा बंगला या तैलगू नहीं है। इसी तरह हिदीं की अनेक बोलियों का अस्तित्व यह साबित नहीं करता कि हिंदी हमारी जातीय भाषा नहीं है। जिन लोगों की जातीय भाषा हिंदी है, वे लोग चीनी जनता के बाद संसार की सबसे बड़ी जाति है। भारत की एक तिहाई जनता की भाषा हिंदी है। इसलिए हिंदी-भाषी जनता का अलगाव भारत की एक तिहाई जनता का अलगाव है। उसकी संगठित शक्ति एक तिहाई भारत की संगठित शक्ति होगीं। हिंदीभाषी जनता का संगठन और उसकी जातीय एकता सारे देश की जनता के संगठन और एकता के लिए आवश्यक है।
फिर भी लोग इस एकता से डरते हैं। तमाम हिंदी-भाषी जनता को एक राज्य में लाने के बदले वे उत्तर प्रदेश को भी दो हिस्सों में बाँटने की बात करते हैं। विभाजन के द्वारा संतुलन कायम रखना साम्राज्यवादियों की नीति रही है, देशभक्तों की नहीं। उत्तर प्रदेश का विभाजन किसी भी सैद्धांतिक कसौटी पर सही नहीं उतरता। उसका आधार केवल भय या ईर्ष्या हो सकती है। इस भय के कारण हैं। भारत के संविधान में जातियों की समानता और उनके अधिकारों की रक्षा का विधान नहीं है। जनतंत्र का अर्थ हर व्यक्ति को समान अधिकार देना ही नहीं है, उसका अर्थ प्रत्येक जाति को समान अधिकार देना भी है। जब तक भारत में लोकसभा के साथ एक जातीय परिषद् नहीं कायम होता, जिसमें हर जाति का समान प्रतिनिधित्व हो और जो लोक सभा के देशव्यापी कार्यों पर नियंत्रण रख सके, तब तक छोटी-बड़ी जातियों में परस्पर ईर्ष्या-द्वेष बना ही रहेगा। यह ईर्ष्या-द्वेष – भाषावार राज्य क़ायम हो जाने पर भी – भारतीय एकता में बाधक होगा। ईर्ष्या-द्वेष को दूर करने का उपाय जातियों की समानता और उनके अधिकारों की रक्षा है, न कि बड़ी जातियों को तोड़ कर छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट देना।
शासन की सुविधा के लिए छोटे राज्य बनाना कोई अर्थ नहीं रखता। हिंदीभाषियों का एक राज्य बहुत बड़ा हो जायगा – या उत्तर प्रदेश ही बहुत बड़ा है – तर्कसंगत बात नहीं है। भारत की केंद्रीय सरकार ने सारे भारत पर शासन करने के लिए न जाने कितने अधिकर ले रखे हैं, उनमें कुछ कमी हो जाए तो जातियों का भला ही होगा। शासन तंत्र ऐसा होना चाहिए जिससे जातीय विकास में सहायता मिले, न कि उसमें बाधा पड़े। जनता का हित बड़े-बड़े राज्य क़ायम करने में है जहाँ वह सुविधापूर्वक सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति कर सके। इसीलिए यह आवश्यक नहीं है कि हर भाषा के लिए एक राज्य का निर्माण कर ही दिया जाय। सोवियत संघ में 60 से ऊपर भाषाएँ हैं, लेकिन वहाँ 16 राज्य ही स्थापित किये गए हैं। जिन भाषाओं के बोलने वाले बहुत बड़ी संख्या में नहीं हैं, उनके जातीय विकास के लिए मुख्य राज्यों के अंतर्गत स्वायत्त प्रदेश कायम किए गए हैं।
‘जातियों के आत्मनिर्णय का अधिकार’ नाम की पुस्तक में लेनिन ने बड़े राज्यों का लाभ बतलाते हुए लिखा है, “जनता अपने दैनिक अनुभव से जानती है कि भौगोलिक और आर्थिक संबंधों का मूल्य क्या है और एक बड़े बाज़ार और एक बड़े राज्य के लाभ क्या हैं। इसलिए लोग अलग होना तभी पसंद करेंगे, जब जातीय उत्पीड़न और जातीय संघर्ष से सम्मिलित जीवन एकदम असंभव हो गया हो और सभी तरह के आर्थिक आदान-प्रदान में अड़चन पड़ती हो।”
लेनिन ने यह बात उन बड़े राज्यों के लिए कही थी, जिनमें विभिन्न जातियों के लोग रहते थे। हिंदी-भाषी जनता का एक बड़ा राज्य क़ायम करने में तो विभिन्न जातियों का नहीं, एक ही जाति का सवाल है। वर्तमान काल में आर्थिक विकास की योजनाएँ बनाने और उन्हें अमल में लाने के लिए हिंदी-भाषी प्रदेश की एकता और भी आवश्यक है। बिहार का लोहा और कोयला, उत्तर प्रदेश की मिलें, मध्यभारत के पठार में रुई का उत्पादन और इन सबका योजना-बद्ध उपयोग हिंद-प्रदेश को उन्नत और समृद्ध बना सकता है।
जातियों की राजसत्ता की प्रतिष्ठा, उनकी भाषा में उनके राज्यगत जीवन का विकास, समाजवाद का उद्देश्य है। इसके विपरीत राज्यसत्ता के जीवाणुओं का नाश, जातियों का विभाजन और उनकी भाषाओं का दमन साम्राज्यवादियों, पूँजीपतियों और सामंतों की नीति है। भारत की अन्य बड़ी जातियों के समान देश की सबसे बड़ी जाति, हिदीं-भाषी जाति, का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह एक राज्य के अंतर्गत संगठित होकर अपना औद्योगिक और सांस्कृतिक विकास कर सके।
इस देश में अनेक भाषाएँ हैं, अनेक जातियाँ हैं, इन जातियों की अपनी-अपनी संस्कृति है। इन सभी जातियों की संस्कृतियों के सामान्य तत्वों का, उनके समुच्चय का नाम भारतीय संस्कृति है। भारत की जातियों से भिन्न भारतीय संस्कृति की सत्ता कहीं नहीं है। वर्गों की, जनसाधारण की संस्कृति की कुछ जातीय विशेषताएँ होती हैं। सामंत वर्ग इंग्लैंड में भी था, यहाँ भी रहा है लेकिन नायिका भेद का प्रसार यहाँ की सामंती संस्कृति की जातीय विशेषता है। सामंतकाल में जनसाहित्य यहाँ भी रचा गया है, यूरोप में भी, लेकिन संत साहित्य की कुछ अपनी जातीय विशेषताएँ हैं। आधुनिक युग में साहित्य शरच्चन्द्र ने भी रचा है, वल्लथोल और भारती ने भी लेकिन बहुत सी बातों में इनके समान होते हुए भी प्रेमचन्द की अपनी जातीय विशेषताएँ हैं। इसलिए संस्कृति की जातीय विशेषताओं के विकास के लिए जातीय गठन ज़रूरी है।
सामाजिक संगठन के बाहर न संस्कृति का अस्तित्व है, न भाषा का। जब हिंदीभाषी जाति न थी, तब जातीय भाषा के रूप में हिंदी भी न थी। वह खड़ी बोली के रूप में एक जनपद तक सीमित थी और वहाँ भी उसका एक टकसाली रूप न था, वरन् मिलतेजुलते अनेक रूप थे। खड़ी बोली का प्रसार और निखार का काम अभी पूरा नहीं हुआ और तब तक पूरा न होगा, जब तक हमारे जातीय विकास और जातीय गठन का काम पूरा न होगा। इसके लिए जहाँ औद्योगिक विकास आवश्यक है, खेती की उन्नति आवश्यक है, शिक्षा का प्रसार आवश्यक है, वहाँ इन कार्यों का संगठन करने के लिए
और समस्त जातीय जीवन का संचालन करने के लिए जातीय राज्यसत्ता भी आवश्यक है। जातीय-भाषा हिंदी की पूर्ण समृद्धि के लिए जातीय गठन आवश्यक है।
जातीय आंदोलनों में हर तरह के लोग शामिल होते हैं। इसलिए इन आंदोलनों का दिग्भ्रांत होना अचरज की बात नहीं। हम सबसे बड़े हैं, हमारे साहित्य के आगे सब कुछ तुच्छ है, इस तरह के भाव अक्सर देखने-सुनने को मिलते हैं। इसी तरह सीमाओं को लेकर झगड़े खड़े करना, एकता और मेलजोल के बदले ईर्ष्या-द्वेष का प्रचार आदि भी है। इस तरह की दुर्भावनाओं से हम तभी बच सकते हैं जब यह याद रखें कि इस देश में हर जाति दूसरी को प्रभवित करती है, हर जाति का विकास दूसरी जातियों की सहायता और विकास पर निर्भर है। जातीय गठन के साथ अंतर्जातीय मैत्री पर ज़ोर देना भी आवश्यक है।
हिंदी-भाषी प्रदेश में जातीय आंदोलन पिछड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश के विभाजन की समस्या, हिंदी बनाम भोजपुरी-मैथिली आदि की समस्या, हिंदी-उर्दू की समस्या आदि हमारे जातीय जीवन के असंगठित होने के चिह्न हैं। जितना ही प्रगतिशील विचारक इस जातीय आंदोलन को अपने आप बढ़ने के लिए छोड़ देंगे, उतना ही इस तरह की समस्याएँ और भी उलझती जायेंगी और नयी समस्याएँ खड़ी होती जायेंगी। इस तथ्य पर ज़ोर देना आवश्यक है कि हिंदी-भाषी जनता एक विशाल जाति है, उसके ऐतिहासिक विकास का सिलसिला कई सदियों से चल रहा है, हमारी भाषा और संस्कृति की उन्नति के लिए इस जाति का एक राज्य में संगठित होना आवश्यक है, इसका विशाल आकार शासन के लिए असुविधाजनक होने के बदले योजनाबद्ध सामाजिक विकास के लिए हितकर है, यह जातीय गठन न केवल हिदीं-भाषियों के लिए वरन् सारे देश के लिए हितकर है। आशा है, हिंदी लेखक और हिदीं प्रेमी पाठक इस समस्या की ओर उदासीन न रहेंगे।
जो लोग यह मानते हैं कि 19वीं सदी के आरंभ से पहले उत्तर भारत के समाज में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ, उनसे निवेदन है कि वे 16वीं-17वीं सदी में नये शहरों के उत्थान पर ध्यान दें, इस उत्थान का कारण बतायें, भारत के आर्थिक जीवन में इन शहरों की भूमिका पर प्रकाश डालें, उस समय के ब्रिटेन के शहरों से इनकी तुलना करें और यह देखें कि इस समय यहाँ जो व्यापार बढ़ा, वह वैसा ही था जैसा पहले के सामंती समाज में था या उसका कुछ और महत्व था। जो लोग यह नहीं मानते कि हमारा जातीय निर्माण 16वीं सदी में आरंभ हुआ था, वे इस बात की व्याख्या करें कि ब्रजभाषा की कविता अपने क्षेत्र से बाहर जनसाधारण में क्यों लोकप्रिय हो रही थी, रामचरित मानस अवध के बाहर क्यों लोकप्रिय हो रहा था, तुलसीदास ब्रज और अवधी दोनों में क्यों लिख रहे थे, इस समय के कवियों की रचनाओं में अनेक बोलियों के शब्द और व्याकरण-रूप क्यों मिलते हैं? ऐसे सज्जन साहित्य की भी साखी लें और देखें कि संत साहित्य के सामंत विरोधी मूल्यों का सामाजिक आधार क्या है, वह साहित्य अनेक जनपदों की जनता का साहित्य बना था या नहीं और उसकी सामंत विरोधी जातीय चेतना को प्रकट करता है या नहीं। इस तरह आर्थिक जीवन, साहित्य-निर्माण और भाषाविज्ञान तीनों की दृष्टि से 16वीं-17वीं सदी का समय हमारे जातीय उत्थान और जातीय गठन का युग ठहरता है।
जो लोग इस जातीय विकास और जातीय गठन का कार्य पूरा नहीं होने देना चाहते, उनसे निवेदन है कि वे इस तथ्य पर विचार करें कि हर संस्कृति की जातीय विशेषताएँ होती हैं, जातीय रूप होता है, हर भाषा की पूर्ण समृद्धि के लिए उसे बोलने वाली जाति का गठन आवश्यक होता है। जातीय गठन को रोकने का अर्थ है, भाषा और संस्कृति के विकास और समृद्धि को रोकना। जातीय गठन को रोकने का अर्थ है, किसी जाति के अंदर विद्यमान राज्यसत्ता के जीवाणुओं को कुचलना। भारत का विकास उसकी विभिन्न जातियों के विकास से ही संभव है। इसके लिए बड़ी संख्या वाली जातियों के राज्य बनाना, छोटी संख्या वाली जातियों के स्वायत्त प्रदेश कायम करना, प्रत्येक जाति को अपनी ही भाषा में शिक्षा पाने और अपना सांस्कृतिक जीवन संगठित करने का अधिकार देना आवश्यक है। एक जातीय प्रदेश के अंदर दूसरी भाषा और जाति के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा भी आवश्यक है। इस तरह भारत सशक्त जातियों का संघ बन कर अजेय होगा। यदि जातियाँ असंतुष्ट होकर लड़ती रहेंगी तो देश कमजोर होगा। बड़ी जातियों से छोटी जातियों को भय न हो, इसके लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि सभी जातियों को समान प्रतिनिधित्व देने वाला ऐसा परिषद् कायम किया जाय जो लोकसभा के भारत व्यापी कार्यों पर नियंत्रण रख सके।
आज के भारत की एक अमिट सच्चाई है – विशाल हिंदी-भाषी जाति। इससे आँख चुरा कर कोई समस्या हल नहीं की जा सकती। अब समय आ गया है कि अपनी जातीय एकता कायम करने के लिए हिदीं-भाषी आगे बढ़े।
यह भी पढ़ें: हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का निबंध ‘कुटज’