‘Shabd Samvad’, a poem by Pranjal Rai
वे शब्द
जिन्हें मैं अपनी अकड़ी हुई जीभ के आलस्य का
प्रखर विलोम मानता था,
जो अपनी शिरोरेखाओं पर
ढोते थे मेरे जीवन का भार,
मुझे नहीं पता था
कहाँ से आते थे वे शब्द,
उनका पता क्या है!
मैंने कभी उन शब्दों की इजाज़त लेना भी
ज़रूरी नहीं समझा,
उन्हें अपने मंतव्य का प्रतिनिधि या अग्रदूत बनाते हुए।
चूंकि वे शब्द थे
लिहाज़ा उनका कोई मानवाधिकार भी नहीं था,
और इसलिए उनकी इच्छा-अनिच्छा की सुनवाई के लिए
कोई अदालत भी नहीं थी।
लेकिन कभी-कभी लगता है
कि ये शब्द
मुझसे प्रश्नवाचक मुद्रा में पूछ रहे हों
कि उनका पता जाने बिना
और जाने बिना उनके नियम और अधिकार,
मुझे उस भाषा की नागरिकता किसने दी
जिसकी इकाई वे शब्द ही थे?
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