मेरे पिता सेवानिवृत्त हुए तो
दफ़्तर की मेज़ पर रखे
विदाई के सामान वहीं छोड़ आए,
अपनी अधिकारिक अहमन्यता
मोटे अक्षरों में छपी मानस की प्रति
और नक़्क़ाशीदार फ़ोल्डिंग छड़ी भी

दे आए छावनी पेड़ के नीचे
शताब्दियों से बैठी
जिस तिस को दुआएँ देती माई को
ग़लत हिज्जों में खुदे अपने नाम वाले
चाँदी की परत वाले सेना मैडल भी
गुपचुप, सबसे आँखें बचाकर

वह जल्द से जल्द पकड़ना चाहते थे
घर की ओर जाने वाली रेलगाड़ी
भूल जाना चाहते थे
द्वितीय विश्व युद्ध की रक्ताभ यादें
सैनिकों के यान्त्रिक सलाम
इस्पात ठुके जूतों की खट-खट

वह इस तरह घर वापस आए
जैसे बच्चे स्कूल से लौट आते हैं
लम्बी छुट्टियों की ख़बर लेकर
जैसे औरतें लौट आती हैं
युद्ध के लिए अलविदा होते
ओझल होते अपने आदमी को छोड़कर

वह वापस आए तो इस तरह आए
जैसे कभी चक्रवर्ती सम्राट आया था
कलिंग से अशोक बनकर
साँस तक लेते रहे सम्भल-सम्भलकर
बिना उत्तर की प्रत्याशा के पूछते रहे
युद्ध ख़त्म होने के बाद
बच्चे कहाँ चले जाते हैं, अन्ततः।

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]

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