क्या होगा, क्या हो सकता था
क्या बचेगा, क्या नहीं बचा
कितना सिर खपाऊ और उबाऊ है ये सोचना

एक बूढ़ी हो चुकी ढीठ माशूक़ा बन्द कमरे में सोचेगी अपने माशूक़ के बारे में
जो किसी दूसरी जगह पर ज़िन्दा रहने के नियमों का निबाह करता हुआ पाया जाएगा
ठहरकर देखेगा एक अलग नक्षत्र एक अलग जगह से और ठण्डी साँस लेगा

ये ख़्याल बहुत उम्दा है
कि लोग सारे हिसाब किताब से खुद को बचाकर भी सोच लेते हैं अपनी प्यारी चीज़ों के बारे में
और धड़कते हुए दिल अभी भी यक़ीन करते हैं
कि ये दुनिया सुन्दर है।

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