दिन-भर के सफ़र के बाद
रात में सोने की
पुरज़ोर कोशिश करता आदमी
बड़ा मासूम लगता है

वह सोने से पहले
सुबह वक़्त पर उठने के लिए
ख़ूब तैयारी करता है,
वह अपने सपनों से कहता है
तुम मत आ टपकना
मेरी आँखों में रत्ती भर जगह नहीं

सुबह वाली ट्रेन बड़ी बेमुरव्वत होती है
वह कभी किसी का लिहाज़ नहीं करती
थकी हुई आत्माओं को अपने भीतर भरकर
तयशुदा समय पर सर्र से निकल जाती है,
अपनी ओर लपकते हाँफते हुए
बुज़ुर्ग तक का भी ख़याल नहीं करती
जिसके दिल की धड़कनें
पैरों से तेज़ दौड़ रही होती हैं

रात में सोने से पहले, बेनागा,
ऐसी प्रार्थना करता है आदमी
जो किसी ईश्वर को सम्बोधित नहीं होती
उसमें लोहे की पटरियाँ
और गार्ड की हिलती हुई
हरी झण्डी होती है केवल
और होती है ट्रेन की
रवानगी वाली कूक अनिवार्यतः

प्लेटफ़ॉर्म पर जमा बेसाख़्ता भीड़ को
चीरता हुआ बदहवास आदमी
ट्रेन के पीछे दौड़ता
कम्पार्टमेंट के दरवाज़े पर लगे
हैण्डल को अन्ततः थामने का आशावाद लिए
रात और नींद को कोसता हुआ
जब ट्रेन में चढ़ता है
तो सिर टिकाने की
जगह तलाशता है
ताकि रात की कच्ची नींद की
ज़्यादा तो नहीं तो थोड़ी ही
भरपाई कर पाए

तमाम जद्दोजहद के बाद
ट्रेन के किसी तंग कोने में टिक
गहरी साँसों के साथ
खर्राटे भरता आदमी
बड़ा ख़ुदग़र्ज़ लगता है,
उसकी मासूमियत हर रात
चकनाचूर हो जाती है
नींद को पाने में नाकामयाब होते हुए!

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]

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