मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे
जो थे
वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण
इस लायक
नहीं रहे
कि उन्हें हम
मगध का शासक कह सकें

लगभग यही शोर है
अवंती में
यही कोसल में
यही
विदर्भ में
कि शासक नहीं
रहे

जो थे
उन्हें मदिरा, प्रमाद और आलस्य ने
इस
लायक नहीं
रखा
कि उन्हें हम अपना शासक कह सकें

तब हम क्या करें?

शासक नहीं होंगे
तो कानून नहीं होगा

कानून नहीं होगा
तो व्यवस्था नहीं होगी

व्यवस्था नहीं होगी
तो धर्म नहीं होगा

धर्म नहीं होगा
तो समाज नहीं होगा

समाज नहीं होगा
तो व्यक्ति नहीं होगा

व्यक्ति नहीं होगा
तो हम नहीं होंगे

हम क्या करें?

कानून को तोड़ दें?

धर्म को छोड़ दें?

व्यवस्था को भंग करें?

मित्रो-
दो ही
रास्ते हैं :
दुर्नीति पर चलें
नीति पर बहस
बनाए रखें

दुराचरण करें
सदाचार की
चर्चा चलाए रखें

असत्य कहें
असत्य करें
असत्य जिएँ –
सत्य के लिए
मर-मिटने की आन नहीं छोड़ें

अन्त में,
प्राण तो
सभी छोड़ते हैं
व्यर्थ के लिए
हम
प्राण नहीं छोड़ें

मित्रो,
तीसरा रास्ता भी
है –

मगर वह
मगध,
अवन्ती
कोसल
या
विदर्भ
होकर नहीं
जाता।

श्रीकान्त वर्मा
श्रीकांत वर्मा (18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986) का जन्म बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। वे गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। ये राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ', 1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1973 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये।