‘Tum Yadi Sundar Nahi Rahogi’, a poem by Sumitranandan Pant

तुम यदि सुन्दर नहीं रहोगी
जीवन की श्री सुन्दरता का
प्रतिनिधित्व
तब कौन करेगा भू पर?

चाँद भले हो उदय,
सलज ऊषा मुसकाये,
उनकी सार्थकता
अनुभव कर पायेगा
क्या अन्तर?

हिरन चकित चौकड़ी भरें,
झाँकें जल-पट से चटुल मीन,
तुहिन स्मित खिलें प्रवाल,
वसन्त बखेरे भू पर,
गन्ध मदिर निज यौवन, –

निखिल प्रकृति व्यापार
स्वतः ही खो बैठेंगे
बिना तुम्हारे रूप-स्पर्श के
मानवीय संवेदन!

प्राण, तुम्हारे प्रति मेरा
मिलनातुर प्रेम प्रतिक्षण
जन-जन के प्रति
अमर प्रेम का साधन!

और, विश्व जीवन के प्रति
इस मुक्त प्रेम को
बनना ईश्वर प्रति भी
प्रणय निवेदन!

जीवन के मन्दिर में अक्षत
बनी रहो तुम
शोभा प्रतिमा
अपलक लोचन-

अर्पित कर निज प्रेम
तुम्हारे प्रिय चरणों पर
देखूँ मैं ईश्वर को
भू पर करते विचरण!

आत्मा से, मन से
पवित्र हो शोभा का तन,
निराकार साकार,
स्वप्न हो सत्य,
स्वर्ग
भू-प्रांगण,-

पावन नहीं रहोगी यदि तुम
श्री सुन्दरता
कभी बन सकेगी क्या
प्रभु मुख दर्पण?

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Author’s Book:

सुमित्रानन्दन पन्त
सुमित्रानंदन पंत (20 मई 1900 - 28 दिसम्बर 1977) हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उनका जन्म कौसानी बागेश्वर में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।