किताब अंश: ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग’
लेखक: डॉ. उदयभानु सिंह

उस विषम काल में जब न तो साहित्य सम्मेलन की योजनाएँ थीं, न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में हिन्दी का प्रवेश था, न रंग-बिरंगे चटकीले मासिक-पत्र थे, हिन्दी के नाम पर लोग नाक-भौं सिकोड़ते थे, लेख लिखने की तो बात ही दूर रही, अंग्रेज़ीदाँ बाबू लोग हिन्दी में चिट्ठी लिखना भी अपमान-जनक समझते थे, जनसाधारण में शिक्षा का प्रचार नगण्य था, हिन्दी-पत्रिका ‘सरस्वती’ को जनता का हृदय-हार बना देना यदि असाध्य नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य था। हिन्दी के इने-गिने लेखक थे और वे भी लकीर के फ़क़ीर। समाज की आकांक्षाएँ बहुमुखी थीं। इतिहास पुरातत्व, जीवन-चरित, पर्यटन, समालोचना, उपन्यास, कहानी, व्याकरण, काव्य, नाटक, कोष, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, विज्ञान, सामयिक प्रगति, हास्य-विनोद आदि सभी विषयों की विविध रचनाओं और तदर्थ विपन्न हिन्दी को सम्पन्न बनाने के लिए विशिष्ट कोटि के लेखकों की आवश्यकता थी। काल था गद्यभाषा खड़ीबोली के शैशव का। काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा में सुरक्षित ‘सरस्वती’ की हस्त-लिखित प्रतियाँ इस बात की साक्षी हैं कि तत्कालीन साहित्यकारों की तुतली भाषा, व्याकरण आदि के दोषों से कितनी भ्रष्ट और भावाभिव्यंजन में कितनी असमर्थ थी।

लेखकों की कमी का यह अर्थ नहीं है कि लेखक थे ही नहीं। ‘सरस्वती’ के अस्वीकृत लेखों से स्पष्ट सिद्ध है कि लेखकों की संख्या पर्याप्त थी। परन्तु उनकी रद्दी रचनाएँ अनभीष्ट थीं। सम्पादन-काल के आरम्भ में ‘सरस्वती’ को आदर्श पत्रिका बनाने के लिए द्विवेदी जी को अथक परिश्रम करना पड़ा।

वर्ष भर की कुल 109 रचनाओं में 70 रचनाएँ द्विवेदी जी की हैं। अन्य लेखकों की देन आख्यायिका, कविता, साहित्य और पुरुषों के जीवनचरित तक ही सीमित है। लेखकों की कमी ने द्विवेदी जी को अन्य नामों से भी लेख लिखने की प्रेरणा दी। सम्भवतः सम्पादक के नाम की बारम्बार आवृत्ति से बचने के लिए, अपने प्रतिपादित मत का विभिन्न लेखकों के नाम से समर्थन करने, उपाधिविभूषित अन्य प्रान्तीय या आलंकारिक नामों के द्वारा पाठकों पर अधिक प्रभाव डालने और उस लाठी-युग के लठैत लेखकों की भयंकर मुठभेड़ से बचने के लिए ही उन्होंने कल्पित नामों का प्रयोग किया था।

द्विवेदी जी ने कभी ‘कमलाकिशोर त्रिपाठी’ बनकर ‘समाचार पत्रों का विराट रूप’ दिखलाया तो कभी ‘कल्लू अल्हइत’ बनकर ‘सरगौं नरक ठेकाना नाहिं’ का आल्हा गाया। कभी तो ‘गजानन गणेश गर्वखंडे’ के नाम से ‘जम्बुकी न्याय’ की रचना की और कभी ‘पर्यालोचक’ के नाम से ज्योतिषवेदांग की आलोचना की। कहीं ‘कवियों की ऊर्मिला-विषयक उदासीनता’ दूर करने, ‘भारत का नौका-नयन’ दिखलाने, ‘बाली द्वीप में हिन्दुओं का राज्य’ सिद्ध करने अथवा ‘मेघदूत-रहस्य’ खोलने के लिए ‘भुजंग भूषण भट्टाचार्य’ बने, तो कहीं ‘अमेरिका के अख़बार’, ‘रामकहानी की समालोचना’, ‘अलबरूनी’, ‘और भारत का चलन बाज़ार सिक्का’ आदि लेखों के प्रकाशनार्थ ‘श्री कंठ पाठक एम. ए.’ की उपाधि-मंडित संज्ञा अपनायी। ‘मस्तिष्क’ की विचारणा के लिए तो ‘लोचन प्रसाद पांडेय’ बन गए। एक बार ‘स्त्रियों के विषय में अत्यल्प निवेदन’ करने के लिए ‘कस्यचित् कान्यकुबजस्य’ पंडिताऊ जामा पहना तो दूसरी बार शब्दों के रूपान्तर की विवेचना करने के लिए ‘नियम नारायण शर्मा’ का सैनिक वेष धारण किया।

पाठकों की बहुमुखी आकांक्षाओं की पूर्ति अकेले द्विवेदी जी के मान की न थी। आवश्यकता थी विविध विषयों के विशेषज्ञ लेखकों की जो ‘सरस्वती’ की हीनता दूर कर सकते। पारखी और दूरदर्शी द्विवेदी जी ने होनहार लेखकों पर दृष्टि दौड़ायी। उन्होंने हिन्दी प्रान्तों और भारतवर्ष में ही नहीं, योरप और अमेरिका में भी हिन्दी लेखकों को ढूँढा। सत्यदेव, भोलादत्त पांडे, पांडुरंग खानखोजे और रामकुमार खेम का अमेरिका से; सुन्दरलाल, सन्त निहाल सिंह, जगद्बिहारी सेठ और कृष्णाकुमार माथुर इंगलैंड से; प्रेम नारायण शर्मा, और वीरसेन सिंह दक्षिणी अमेरीका से तथा बेनीप्रसाद शुक्ल फ़्रांस से लेख भेजते थे। कामता प्रसाद गुरु, रामचन्द्र शुक्ल, केशव प्रसाद मिश्र, मैथिली शरण गुप्त, गोपाल शरण सिंह, लक्ष्मीधर वाजपेयी, गंगानाथ झा, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, देवीदत्त शुक्ल, बाबूराव विष्णु पराड़कर, रूप नारायण पांडेय, विश्म्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ आदि की चर्चा यथास्थान की गई है।

द्विवेदी जी के स्वास्थ्य की हानि का प्रधान कारण आज महान् साहित्यकार कहलाने वाले लेखकों की अशुद्धि भरी रचनाओं का आद्योपान्त संशोधन ही था। लेखकों से पत्र व्यवहार, प्रूफ़-संशोधन और पर्यवेक्षण के अनन्तर अन्य लेखकों की रचनाओं को काट-छाँटकर सुधारने का भगीरथप्रयत्न और उस पर भी अनेक उपयोगी और आवश्यक लेखों को स्वयं लिखकर ‘सरस्वती’ की प्रत्येक संख्या नियत समय पर प्रस्तुत करना द्विवेदी जी-जैसे असाधारण सम्पादक का ही काम था। दुस्साध्य संशोधन-कार्य तो कभी-कभी उन्हें आक्रान्त कर देता था। सत्यशरण रतूड़ी की ‘शरत्-स्वागत’ कविता का कायाकल्प करते हुए उन्होंने हाशिये पर अंग्रेज़ी में आक्षेप किया—

“नोट—ये कवि मेरे लिए घोर दुःख के कारण हैं।”

निस्संदेह कष्ट की सीमा हो जाने पर ही द्विवेदी जी ने ऐसा लिखा होगा। इस अनन्त परिश्रम से पराजित होकर एक बार उन्होंने गिरिधर शर्मा की ‘अंशुमती’ कविता को मैथिली शरण गुप्त के पास संशोधनार्थ भेजते हुए उसके हाशिये पर आदेश किया—

“मैथिलीशरण जी,

दया कीजिए, हमारी जान बचाइए। इन दोनों कविताओं को ज़रा ध्यान में अपनी तरह देख जाइए। फिर उचित संशोधन करके 4-5 दिन में यथासम्भव शीघ्र ही लौटा दीजिए। कई जगह शब्द-स्थापना का क्रम ठीक नहीं। पढ़ते नहीं बनता।

म. प्र. द्विवेदी २२.३.११।”

‘सरस्वती’-सम्पादन के कठोर यज्ञ में द्विवेदी जी ने अपने स्वास्थ्य का बलिदान कर दिया। 1910 ई. में उन्हें पूरे वर्ष भर की छुट्टी लेनी पड़ी। तत्पश्चात् दस वर्षों की कष्टकारी साधना के कारण उनका शरीर जर्जर हो गया और उन्हें विवश होकर ‘सरस्वती’ सेवा से विश्राम ग्रहण करना पड़ा।

लेखकों के प्रति द्विवेदी जी का व्यवहार विशेष सराहनीय था। जब कोई रचना उनके पास पहुँचती तो वे तत्काल उसे देखते, शीघ्र ही उसकी पहुँच, छपने या न छपने का उत्तर भी भेज देते। अस्वीकृत रचना लौटाते समय लेखक के आश्वासन के लिए कोई न कोई वाक्य अवश्य लिख देते थे जिससे वह अप्रसन्न या हतोत्साह न होकर गद्गद् हो जाता था। दिसम्बर 1913 ई० में केशवप्रसाद मिश्र की ‘सुदामा’ शीर्षक लम्बी तुकबन्दी में उसके दोषों का निर्देश और उन्हें दूर कर कहीं अन्यत्र छपा लेने का आदेश किया। मैथिलीशरण गुप्त की भी पहली कविता ‘शरद’ अस्वीकृत हुई, परन्तु दूसरी कविता ‘हेमन्त’ को उचित संशोधन और परिवर्धन के साथ ‘सरस्वती’ में स्थान मिला। उनका यह व्यवहार सभी लेखकों के प्रति था। वे रचनाओं में आमूल परिवर्तन करते, शीर्षक तक बदल देते थे। अप्रत्याशित संशोधनों के कारण मिथ्याभिमानी असंतुष्ट लेखक डाँटकर पत्र लिखते और द्विवेदी जी अत्यन्त विनम्र शब्दों में क्षमा माँगते, उन्हें समझाते-बुझाते थे।

उनके सम्पादकीय शिष्टाचार और स्नेहपूर्ण व्यवहार में लेखकों के प्रति शालीनता, नम्रता और ख़ुशामद की सीमा हो जाती। यह सम्पादक द्विवेदी का गौरव था। सच्ची लगन, विस्तृत अध्ययन, सुन्दर शैली और सज्जनोचित संकोच वाले लेखकों का उपहास न करके वे उन्हें उत्साहित करते और गुरुवत् स्नेह तथा सहानुभूति से उनके दोषों को समझाते थे। जिस लेखक को लिखना आ जाता, उसे ‘सरस्वती’ निःशुल्क भेजते और योग्यतानुसार पुरस्कार भी देते थे। लक्ष्मीधर वाजपेयी के ‘नाना फड़नवीस’ नामक विस्तृत लेख को अत्यन्त परिश्रम से काट-छाँटकर आठ पृष्ठों में छापा और सोलह रुपया पुरस्कार भी भेज दिया। आदर्श सम्पादक द्विवेदी जी अपने लघु लेखकों पर भी कृपा रखते थे।

द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ को व्यक्ति-विशेष या वर्ग-विशेष को संतुष्ट करने का साधन नहीं बनाया। उन्होंने ग्राहक-समुदाय को स्वामी, और अपने को सेवक समझा। ‘सरस्वती’ का उद्देश्य था अपने समस्त पाठकों को प्रसन्न तथा लाभान्वित करना। द्विवेदी जी ने ज्ञानवर्धक और मनोरंजक रचनाओं का कभी तिरस्कार नहीं किया। कितने ही यश और धन के लोलुप स्वार्थान्ध महानुभाव अपनी या अपने स्वामियों की असुन्दर, अनुपयोगी और नीरस रचनाएँ, चित्र एवं जीवनचरित छपाने की अनधिकार चेष्टा करते थे। कितनों की भाषा इतनी लचर, क्लिष्ट और दूषित होती थी कि उसका संशोधन ही असम्भव होता था। कठोर कर्त्तव्य द्विवेदी जी को उनका तिरस्कार करने के लिए बाध्य करता था। ये महानुभाव अस्वीकृत रचनाओं को वापस मँगाने के लिए टिकट तक न भेजते, महीनों बाद उनकी खोज लेते और धमकियाँ तथा कुत्सापूर्ण उलाहने भेजकर अपना एवं सम्पादक का समय व्यर्थ नष्ट करते थे। द्विवेदी जी व्यक्तिगत पत्र या ‘सांवत्सरिक सिंहावलोकन’, ‘लेखकों से प्रार्थना’, ‘लेखकों का कर्तव्य’ आदि लेखों द्वारा लेखकों को चेतावनी दे दिया करते थे। इतने पर भी जो ‘सरस्वती’ के लक्ष्य और मान के अनुपयुक्त रचनाएँ भेजता, वह अवश्य ही तिरस्कार का पात्र था। लेखकों के प्रति उनके सहृदयतापूर्ण व्यवहार का प्रमाण उन्हीं के शब्दों में लीजिए—

“नरदेव शास्त्री—आप ऐसे ऐसे रद्दी लेखों का स्वागत करते हैं, यह क्या बात है?

द्विवेदी जी—(सस्मित) द्वार पर आने वालों का स्वागत करना परम धर्म है और जिन महानुभावों को बार-बार लिखकर लेख मँगाया जाता है, उनका तो आदर आवश्यक ही है।”

द्विवेदी जी ने अपने व्यक्तित्व, वाणी और संशोधन की कठिन तपस्या द्वारा अनेक लेखकों और कवियों को ‘सरस्वती’ का भक्त बनाया। कितने ही लेखक ‘सरस्वती’ की सुन्दरता, लोकप्रियता, ईदृक्ता और इयत्ता से आकृष्ट होकर स्वयं आए।

प्रसाद चौबे का यात्रा-वृत्तांत 'मेरी आँखों का दौलतपुर'

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