मैं अपना काम ख़त्म करके वापस घर आ गया था। घर में कोई परदा करने वाला तो नहीं था, पर बड़ी झिझक लग रही थी। गोपाल दूर के रिश्ते से बड़ा भाई होता है, पर मेरे लिए वह मित्र के रूप में अधिक निकट था। आँगन में चारपाई पड़ी थी, उसी पर बैठ गया। भाभी ख़ामोश-सी चौके में बैठी थीं। चूल्हे की आग मंझा गई थी, उन्होंने सुलगते कोयले पर घी की कटोरी गर्म होने के लिए रखी थी। मैं पहली बार इस घर में आया था, संकुचित-सा बैठ गया। भाभी के पास इस तरह अकेले में बैठना भी अजीब लग रहा था और जाकर बैठक में चुपचाप बैठने पर संकोच लगता था क्योंकि पराया घर और भाभी से पहली मुलाक़ात। क़दम एकदम नहीं उठ पा रहे थे।
शाम काफ़ी झुक आयी थी। लालटेन जलाकर भाभी फिर वहीं चूल्हे के पास आकर बैठ गईं। उस उमस और ख़ामोशी के वातावरण में जी घबराने लगा। आँगन में बंधे तार पर पड़े कपड़ों की सलवटों में अंधेरा भरता जा रहा था और जलती लालटेन का पीला-पीला बीमार-सा थकन भरा प्रकाश और उसके सामने पड़ने पाली वस्तुओं की फैली हुई लम्बी-लम्बी काली छायाएँ! घुटन-सी महसूस करते हुए, बहुत झिझकते-झिझकते कई बार कोशिश करने के बाद, एक बार आवाज़ फूट ही पड़ी, “क्या गोपाल भैया बहुत देर से आते हैं?”
“अक्सर देर हो जाती है।” वैसे ही बैठे भाभी ने निर्लिप्त भाव से कह दिया।
मैं ख़ामोश हो गया, अब और कोई प्रश्न भी नहीं था। निदान चौके की तरफ़ ताकता रहा। चौके की छत को टिकाए रखने वाले दोनों खम्भों की चौड़ी काली-काली छायाएँ फ़र्श पर पड़कर फिर भीतरी दीवार की कालिख में गुम हो गई थीं और उनके बीच में दबी-सकुची-सी भाभी बैठी थीं…। मैं उकताकर उठना ही चाहता था कि भाभी बोलीं, “आप खा लीजिए, भूख लग रही होगी।”
“नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है, अब शायद आते ही होंगे। हमसे कहा था कि छह बजे तक ज़रूर आ जाएँगे।” बहुत सम्भलते हुए घरेलू तरीक़े से मैंने कहा।
…चौके का धुआँ अब तक साफ़ हो चुका था पर घर के और हिस्सों से अधिक कालिख उसमें फैल चुकी थी। मैं ग़ौर से भाभी को ताक रहा था क्योंकि यह तय था कि उनकी नज़रें मेरी ओर नहीं उठेंगी।
एक काला-काला-सा भारीपन वहाँ की वायु में भर रहा था, कोई आवाज़ नहीं, ठहरा-ठहरा-सा सब कुछ निस्पंद… भाभी जैसे इस ठहराव को जीवन में डालकर अभ्यासी बन चुकी थीं। अभी शादी को साल-भर से अधिक नहीं हुआ होगा, लेकिन यह गतिहीन ठहराव जैसे जीवन की हर रंगीनी को मिटा चुका है।
घी कड़क उठा, भाभी ने उँगलियों से पकड़कर हटा दिया, कुछ इतनी आसानी से कि जैसे गर्म धातु ज़रा भी असर नहीं करती—न उँगली थरथरायी, न कलाई ने जल्दी की। धुआँ छोड़ती हुई ठिंगरी भी अब तक बिलकुल चुप हो गई थी… काफ़ी देर बाद वह ऊबती हुई कुछ कहने जा रही थीं कि गोपाल आ गया। मुझे देखते ही वह बोल पड़ा, “काफ़ी अकेलापन महसूस किया होगा, क्या बताऊँ देर हो गई।”
मैं ख़ामोश रहा। वह कमीज़ उतारते हुए कहने लगा, “इन्हें तो बस रोटी-गृहस्थी से काम है। अगर कनस्तर, डिब्बे और शीशियाँ ज़रा भी बुदबुदाना जानती होतीं तो शायद हमसे भी बात करने की नौबत न आती, तब भला तुमसे क्या की होंगी।”
“हाँ, भाभी बड़ी गम्भीर मालूम पड़ती हैं।” कहकर मैंने उनकी तरफ़ नज़र डाली। उनमें कुछ हरकत-सी हुई थी पर वह शायद पटा डालने के लिए थी।
“नॉट सीरियसली बट सिली।” कहता हुआ गोपाल भीतर कमीज़ टाँगने चला गया।
खाना खाते वक़्त गोपाल कुछ विरक्त-सा हो रहा था। हर चौथे-पाँचवे कौर के बाद पानी पीता जाता था। हम दोनों साथ ही खा रहे थे…
भाभी ने झिझकते हुए हाथ से रोटी थाली में रख दी। गोपाल ने झट से उठाकर रोटी के चार टुकड़े कर दिए, कुछ इतनी आसानी से कि कोई ख़ास बात नहीं थी।
“अरे, टुकड़े करने की क्या ज़रूरत है, गर्म तो नहीं है और मैं लखनऊआ भी नहीं, जो इतना तकल्लुफ़ बरत रहे हो।”
…कई बार कहने पर भी जब नहीं माना तो मेरे मुँह से निकल ही गया, “हद कर दी यार तुमने भी, भई मेरी उँगलियाँ अभी साबित हैं।”
यह कहकर मैं मेहमान की बू मिटाना चाहता था।
“ये रोटियाँ हैं या नक़्शे, कोई अफ़्रीका का, कोई अमेरिका का।”
…मैं अप्रतिभ-सा हो गया। यदि मैं बार-बार न टोकता, तो शायद भाभी को यह लतीफ़ा न सुनना पड़ता।
थोड़ी देर बाद जब बाहर कमरे में आ गया, तो बड़ी अजीब-सी बात सुन पड़ी। शायद बग़ल वाले कमरे में ही गोपाल था। काफ़ी साफ़ सुनायी पड़ रहा था। वह कह रहा था, “मैं पानी की तरह रुपया बहाकर घर को ठीक रखना चाहता हूँ और कुछ नहीं तो आज एक नया ढंग पेश किया तुमने। इसी तरह की शर्मिंदगी मुझे हमेशा उठानी पड़ती है और तुम अपने तौर-तरीक़ों से बाज़ नहीं आतीं। …तुम्हारी इतनी मजाल, रोटियाँ लग गई हैं।”
गोपाल तैश में कह रहा था। भाभी कुछ बोली थीं। चटाक की आवाज़ और गोपाल का गूँजता हुआ स्वर, “यही चाहती थी न? मैं सोचता था कौन हाथ छोड़े। नहीं समझ में आता और फिर हर बात का मुँह पर जवाब, बड़ी गम्भीर बनी फिरती है।”
…दूसरे दिन जब विदा होने लगा तो जी में आया कि गोपाल से उसके वहशीपन के बारे में कुछ कह दूँ पर हिम्मत नहीं हुई। बाहर निकलने लगा तो दूर से ही मैंने कहा, “भाभी जी नमस्ते।”
…नीची नज़र किए ही भाभी जी ने नमस्ते की। मैं सकुचा गया। वे ही सारी बातें मन को भारी किए हुए थीं… उल्लास, खीझ, विद्रोह, घृणा, प्यार कुछ भी नहीं, आख़िर कैसे जीती हैं वे?
घर आते-आते उदासी दूर होती गई। कमरे का ताला खोला तो पहली नज़र आए हुए पत्रों पर पड़ी… एक लिफ़ाफ़े पर नज़र उलझकर रह गई। यह पत्र अवश्य ही बिनती का है, ऐसा मुझे विश्वास हो गया। बिनती आख़िर आज मैं तुम्हें याद आ ही गया। दो साल बाद। कुछ दर्द-सा उठा। पत्र खोलकर पढ़ने लगा—
प्रिय राजू, आज सहसा तुम याद आए हो। वास्तव में शादी के बाद लड़की के जीवन में महान परिवर्तन होता है, विवाह के बाद पुरुष को रहन-सहन का कुछ ढंग ही बदलना पड़ता है, पर लड़कियों को तो पूरी आत्मा बदलनी पड़ती है। यह मेरा स्वयं का अनुभव है, मैंने अपनी आत्मा को बदलने की चेष्टा की है। एक क़ीमती आत्मा की हत्या भी इसीलिए की कि वह तुम्हें प्यार करती थी। जब मैंने इस नए घर में क़दम रखा था तो यही सोचकर कि मेरी आत्मा सदैव के लिए तुम्हारे पास है और शरीर इस नए घर का है। लेकिन बहुत ईमानदारी से कहूँ, बुरा मत मानना, कुछ दिनों बाद मेरी पसलियों की काया में कुछ नरम-स्पर्श-सा महसूस होने लगा, आत्मा का स्पंदन होने लगा और तभी से इस घर के दुःख-सुख मुझे सताने लगे।
मुझे तुम्हारी उदारता पर विश्वास है, इसीलिए लिख रही हूँ। मेरी कही हुई बात की ईमानदारी को यदि तुमने न समझा तो मेरे साथ अन्याय करोगे। सच यह है कि मैं तुम्हें भूलने लगी थी और अब भी बहुत याद नहीं करती…
मैं यहाँ बहुत सुखी हूँ। सारे आराम यहाँ हैं। मेरी माँ और पापा का अरमान कि उनकी इकलौती लड़की का रिश्ता किसी ऊँचे घर में हो, पूरा हो ही गया है। इससे भी मुझे बहुत संतोष मिलता है। शादी होने से पहले मुझे तुम्हारा मोह था… तुमसे दूर होने की सोचकर मैं घबरा जाती थी… पर अब यह सब एक मुलम्मे की तरह उतर चुका है… पर ‘ये’ जिन्हें तुम अपना ‘ख़ुशनसीब ज़ालिम मित्र’ कहते हो, बहुत कुछ तुम्हारी तरह ही हैं, तुम्हारी तरह ही हँसते हैं, वैसे ही बात करते हैं, उसी तरह चलते-फिरते हैं, सब अंदाज़ वे ही हैं। हाँ, तुम्हारी आँखें ज़रा अधिक गहरी हैं जिनकी बरबस मुझे याद आ गई।
…आज खाना पकाने वाली महाराजिन नहीं आयी। घर की बहू हूँ मैं, खाना पकाने के लिए रसोईघर में गई, शायद पहली बार। जब वहाँ घुसी तो बरबस यह भाव जाग उठा कि तुम्हारे साथ यदि जीवन बीतता होता तो रोज़ ऐसे ही मुझे खाना पकाना पड़ता। तुम्हारे साथ जीवन की तमाम कल्पनाएँ मेरे दिमाग़ में आ-आकर समाती जा रही थीं। मुझे इस तरह रहना पड़ता, मैं यह करती, मैं वह करती, शाम को तुम्हारे आने की राह देखती, मैं खाना पकाती, तुम बीच-बीच में आकर छेड़ते, कभी दाल में पानी ज़्यादा बताते तो कभी रसोईघर में गर्मी से परेशान देखकर मुझे बाहर ले जाते।
मेरी हालत अजीब-सी हो रही थी। तुम्हारी हर बात याद आने लगी। अकेले ही रोटी बनाने बैठी तो लगा जैसे तुम अभी छेड़ने आ रहे हो, तुम मेरी आँखों के सामने पूरी तरह से उभरे हुए थे, मेरी हर साँस में तुम बस गए थे। मेरे चारों ओर तुम थे। तुम्हारे पैरों की आहट हर तरफ़ से आ रही थी और मेरी हर रोटी टेढ़ी हो जाती थी… हर गोल बनती रोटी अपने-आप टेढ़ी होकर बदशक्ल हो जाती। यह सब मुझे बहुत अपना-सा लग रहा था जैसे पुरानी आत्मा अपने पुराने रूप में मुझे वापस मिल गई हो। खाते वक़्त उन्होंने हँसते हुए कहा कि वाह यह किसी ख़ास जगह की रोटियों का नमूना है।
माता जी बोली थीं, अरे सीख जाएगी, इसमें हँसने की क्या बात, अभी आदत नहीं है।
पर राजू, मेरी आत्मा तुम्हारी आहट सुन रही थी। मैंने अपने आँसुओं को दोनों की नज़र चुराकर सुखा लिया। शायद किसी ने नहीं देखा। अगर देखा भी होगा तो समझ नहीं पाया होगा।
मैं पत्र आगे न पढ़ सका। घुटन, बेबसी, धुआँ, ठहराव, ख़ामोशी और उसमें ऊबती हुई आत्मा। वे बेबस उठे हुए हाथ और पानी-भरी आँखें जैसे चारों ओर थीं, हर तरफ़ थीं।
कमलेश्वर की कहानी 'दिल्ली में एक मौत'