‘Azadi : Ek Patr’, Hindi Kahani by Bhuvaneshwar

वही मार्च का महीना फिर आ गया। आज शायद वही तारीख़ भी हो। पर मेरे लिखने का सबब इतना निकम्मा नहीं है। असल में प्यारे दोस्त, इस एक साल में मेरे साथ कुछ ऐसा ‘घट’ गया है कि अब जब कई बार टाल चुकने के बाद मैं तुम्हें लिख रही हूँ, ऐसा हौसला होता है कि मुझे इससे कहीं पहले लिखना चाहिए था। बहरहाल, तुमने इस साल-भर चुप रहकर उस समझदारी का सबूत दिया है जो हमीं लोग, हम जो इतने सबसे गुज़र चुके हैं, समझ सकते हैं।

वह स्टूडेंट जिसने उस शाम को इसाडोरा डंकन के फ़ैशन में बहुत सी खट्टी-मिट्ठी बातें की थीं, पिछले सितम्बर में अचानक मर गई। हॉस्टल छोड़ने के कुछ दिन पहले उसने अपनी खिड़की में नागफनी का एक गमला लाकर रखा था और राम जाने मज़ाक़ या किसी गहरे दयनीय विकार में ठीक हमारे पुरखों की तरह उसे पूजना शुरू कर दिया था। फिर एक दिन वह अचानक ख़फ़ीफ़-सी बीमार होकर घर चली गई और क़रीब एक महीने बाद सुबह हम लोगों ने देखा कि हाउस मेड के पीछे एक काउब्वाय फ़िल्मों के मनमौजियों की तरह का आदमी उसके कमरे में से निकल रहा है।

वह उसका बाप था जो उसकी चीज़-वस्तु लेने आया था। सो हमारी नन्हीं इसाडोरा डंकन की मौत इस तरह हुई और मेरा ख़याल है कि इस मौत के सिवा कोई भी उसके मौज़ूँ न थी।

क्या तुम महसूस नहीं करते कि अक्सर हम न अपनी ज़िन्दगी जीते हैं और न अपनी मौत मरते हैं। अस्पताल के ख़ैराती कपड़ों की-सी ज़िन्दगी न हम पर फबती है, न फ़िट ही होती है और हालाँकि वह साफ़ और धुली होती है; क्लोरोफ़ॉर्म की बदबू की तरह मौत उसमें बसी रहती है।

मैं बाज़ मर्तबा महसूस करती हूँ कि हमारी सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि हम अपनी ज़िन्दगी नहीं जीते; बल्कि हम अपनी मौत नहीं मरते। क्योंकि यह सिर्फ़ मौत है जो ज़िन्दगी के ओछेपन को असम्बद्ध और बेकार घटनाओं के ढेर को एक मानी देती है। मैं जानती हूँ, आप ज़रूर इसे ‘अंदोलस्ते सोफ़िस्त्री’ कहेंगे। मुझे याद है, तुमने जो कहा था कि मैटर में न कुछ पैदा होता है और न कुछ मरता है। आदमी ने ख़ुद पैमाइश और मौत बनायी है कि वह इस कवित्व से अपने-आप को बरतरी दे।

हाँ भुवन, मैं इस बहस को तातील देकर तुम्हें वह घटना बता दूँ, क्योंकि अगर मैं इस वक़्त नहीं कहूँगी तो फिर पूरे ख़त में नहीं कह पाऊँगी। मैं, एक दो महीने के बच्चे की माँ हूँ।

वह कुछ इतना सहज और अचानक हुआ कि पहले तो मैं ख़ुद अपने ही से उसे क़बूल न कर सकी। निहायत मासूमी से मैं रातोरात जगकर सोचा करती थी। टर्म का आख़िर हो रहा था और हॉस्पिटल-ड्यूटी से भी एक महीने की छुट्टी हो रही थी। हाँ, मैं बराबर इस नए ‘फ़ेनामना’ के बारे में सोचती रहती थी और शुरू में ही मैंने डरने से एकटूक इनकार कर दिया। मैं जब घर जा रही थी, तब डर शुरू हुआ—एक अनहोना धुँधला ख़ौफ़ जो दिल में दर्द नहीं, झुँझलाहट और ऊब पैदा करता था। पूरे ट्रेन के सफ़र में अजीब-अजीब पेंच खाती रही।

मैं चाहती थी, पर जान न सकी कि दूसरे लोग मुझे कैसे देखते हैं। सफ़र की रात बड़ी तकलीफ़देह थी। मैंने ध्यान बँटाने के लिए लोगों से बातचीत शुरू की, पर वह सभी सवालों का अनमने जवाब देकर कतरा जाते थे। मुझे ऐसा क्या हो गया था! मुझ पर अजीब गुज़र रही थी। यक़ीन करो, बाज़ मर्तबा तो मन ऐसा करता था कि मैं एकबारगी विलाप कर रोने लगूँ या एकबारगी चिल्ला पड़ूँ— ‘ऐ भूचाल की सन्तानो।’

अब आख़िरकार नींद आ गयी तो सपनों में मैं उस नागफनी के धूल से भरे सूखे बूटे को देखती रही। सुबह काठगोदाम में मन फिर स्वस्थ हो गया। रात भर के सफ़र के बाद काठगोदाम की गीली-गीली हवा और नीले—बिलकुल नीले—पहाड़ों की परतों में जो जादू है, वह तुम जानते हो। अल्मोड़े तक लॉरी का सफ़र मैंने बड़ी अच्छी तरह किया। मेरे अन्तर में कुछ उदय हो रहा था और मुझे यक़ीन था कि मैं माँ से सब कुछ कह लूँगी। अल्मोड़े की चूँगी के पास फिर मेरी हिम्मत बढ़ने लगी।

मैंने देखा—नए पादरी की बीवी, मिसेज़ नबी मेरी तरफ़ छाता हिला-हिलाकर भोंडे तरीक़े से मुस्करा रही हैं। पहले तो मेरा हँसने का जी चाहा, लेकिन तुरन्त ही ख़याल हुआ कि जब उन्हें मालूम होगा तब भी वह इसी भोंड़ी और खिसियायी-सी मुस्कान से मेरी तरफ़ देखेंगी और कुछ बेमानी बुदबुदाकर छाता हिलाती तेज़-तेज़ चल देंगी और तब… और तब…।

माँ मुझे देखते ही चौकन्नी हो गयी। उन्होंने मुश्किल से साधारण होने की कोशिश की; पर मेरे लिए वह बोझ बहुत था। मैंने मुँह फोड़कर कहा— “ममा, अब तो मैं साल-भर बाद ही नौकरी कर सकूँगी।”

ममा ने पल-भर को मेरी तरफ़ दर्द से देखा और फिर धीरे-धीरे भीतर के कमरे में चली गयीं। परदे के पीछे से उन्होंने कहा— “जो तुम्हारा जी चाहे करो; लेकिन प्रभू और सलीब की क़सम मेरे सामने न पड़ना।”

मुझे एकबारगी याद आया कि एक मौक़े पर इसी आवाज़ और लहजे में यही बात उन्होंने कही थी और मेरा मन दहल गया। पीले सिकुड़े परदे की धारियाँ तरल आग की तरह लौटने लगीं।

बचपन में मेरे सबसे बड़े भाई टिम ने एक रोज एक कुतिया पाल ली थी। उसके पीछे के दोनों पैर घायल थे और वह घिसट-घिसटकर चलती थी, शायद इसीलिए कोई भोटिया उसे छोड़ गया था। टिम ने उसे देखते ही पाल लिया और कंजड़ नाम रख दिया। ममा इस नाम पर बहुत हँसी पर कंजड़ को घर में रखने से उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। मैंने और टिम ने फ़ौरन रावत साहब के बँगले की मुँडेर के नीचे टाट का मकान बना दिया था। एक रोज़ टिम ने हाँफते हुए आकर ख़बर दी कि कंजड़ के एक, दो, तीन, चार बच्चे हुए हैं और ममा ने इसी तरह परदे के पीछे खड़े होकर कहा था— “जो तुम्हारा जी चाहे करो, लेकिन प्रभू और सलीब के लिए मेरे सामने मत पड़ना।”

मैंने और टिम ने उन छोटे-छोटे चूहों के-से बच्चों को टाट में लपेटा और नारायण तिवारी के एक पोखरे में डुबा दिया। पहले वह बार-बार उभर आता था और टिम को उसे एक छड़ी से डुबोना पड़ा। उस दिन टिम अपने हाथों को दाँत से काटता घर भर में दौड़ा किया…

मैं अब न रुक सकती थी! मेरी अपनी माँ मेरे ख़िलाफ़ हो गयी थी।

हॉस्टल छुट्टियों में ख़ाली हो चुका था, सिर्फ़ दो-एक फ़ाइनल की लड़कियाँ थीं। मैं सामान रखवाकर अस्पताल आयी और वहाँ मैंने सब कुछ सरूपी से कह दिया। पहले सरूपी को यक़ीन नहीं हुआ, जब हुआ तो वह ‘ग्लैडिस का बच्चा’ या ऐसा ही कुछ चिल्लाती हुई ऊपर भागी और एक नए हाउस सर्जन को खींचती हुई ले आयी—खुशी और एक्साइटमेंट से वह दीवानी हो रही थी। हाउस सर्जन हक्का-बक्का होकर देख रहा था, कहा— “बच्चा? कैसा बच्चा?” और सरूपी ने उसे हँसते हुए कमरे से ठेल दिया।

लेकिन वह आदमी कौन है?

यह ठीक है कि हम उसको किसी तरह सज़ा नहीं देना चाहेंगे। सज़ा का पूरा बोझ तुम्हीं (यानी स्त्री) को उठाना पड़ेगा। ज़्यादा-से-ज़्यादा हम यह कह सकते हैं कि हम तुमको सिर्फ़ इतनी ही सज़ा दें कि हम तुम्हें उस धोखेबाज़ बेउसूले मर्द के हवाले ज़िन्दगी-भर के लिए कर दें। इसलिए औरत को अपने बरगलाने वाले का नाम बता देना फ़र्ज़ ही नहीं, एक बड़ा नैतिक और सामाजिक उत्तरदायित्व है। लेकिन मैं इज़्ज़तदार बेरोज़गार हूँ, ख़ासी इकोनॉमिक यूनिट हूँ, इसलिए मैं क़ैदी के कठघरे में खड़े होने के बजाय ख़ुद जजों की बेंच पर बैठी हूँ। छोटा-सा क़स्बा है, यहाँ हर आदमी यही समझता है कि इन डॉक्टरनी साहिबा ने किसी लावारिस लड़के को पाल लिया है। लेकिन इससे भी ज़्यादा कुछ है।

पिछली सर्दियों से जब वक़्त क़रीब ही था, मैं हॉस्पिटल में ही कुछ नाइट ड्यूटी करती थी। एक दिन सुबह, जब मैं एक वार्ड से दूसरे वार्ड में जा रही थी, मैंने उसे दूर से पहचान लिया। मैंने फ़ौरन पहचाना उसकी गम्भीर और कुछ-कुछ मग़रूर चाल और मत्थे के ऊपर घोंसले की तरह रक्खे हुए बालों से। ऐसी शायरों की धजा डॉक्टरों में बेहद ग़ैर-मामूली चीज़ है। उसने भी मुझे देख लिया और मेरे बराबर से गुज़रा तो ठिठक गया। उसने कहा कि उसे लड़ाई पर कमीशन मिल रहा है; लेकिन वह ख़ुद अपना क्लीनिक खोलना चाहता है। और कुछ ऐसी ही इधर-उधर की बातें करके वह चल दिया।

दूसरी मर्तबा नैनीताल में वह एक दिन शाम को सरूपी के साथ आ गया। बच्चा वहीं एक किबी में था और मैं सरूपी के साथ ठहरी थी। मेरी नौकरी का ठीक नहीं हुआ था, पर मेरा मन और शरीर काफ़ी स्वस्थ था। उसे देखकर मैं एकबारगी हँस पड़ी। ज़ाहिर है कि उसने बच्चे के बारे में सुन लिया था, फिर भी वह अनजान बना हुआ था और मैंने या सरूपी ने बच्चे की कोई बात नहीं की। उसने अपनी ज़िन्दगी की कठिनाइयों और मायूसियों का पहली बार मुझसे ज़िक्र किया और कहा कि शायद मजबूर होकर उसे फ़ौज में ही जाना पड़ेगा। फिर यह उसका सामने ख़त पड़ा है जिसमें उसने लिखा है कि वह आठ तारीख़ को यानी आज बम्बई से सेल कर रहा है, शायद यह न जानते हुए कि उसकी औलाद ने एक औरत का दिल और ज़िन्दगी भरी-पूरी कर दी है।

मैंने पहले ही दिन से तय कर लिया था कि मैं उसे न बताऊँगी, मैं उसे मजबूर नहीं करना चाहती हूँ और नहीं बरदाश्त कर सकती कि उसका-सा बेचारा और दयनीय पुरुष मुझ पर दया करे। अगर सच पूछो तो बच्चा उसके लिए क्या है और मेरे लिए वह ऐसा सत्य है जिसे मैंने शरीर और आत्मा की पीड़ा के ज़रिए महसूस किया है। इसने मेरे अन्दर अनहोनी ताकत, उमंग और आज़ादी की ललक पैदा कर दी है।

क्या चीज़ है आज़ादी? बिना उसे हासिल किए और बरते बिना उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी 'पत्नी का पत्र'

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भुवनेश्वर
भुवनेश्वर हिंदी के प्रसिद्ध एकांकीकार, लेखक एवं कवि थे। भुवनेश्वर साहित्य जगत का ऐसा नाम है, जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया। भुवनेश्वर ने मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतीरूप में उकेरा। उन्हें आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव भी हासिल है। एकांकी, कहानी, कविता, समीक्षा जैसी कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। एक ऐसा साहित्यकार जिसने अपनी रचनाओं से आधुनिक संवेदनाओं की नई परिपाटी विकसित की। प्रेमचंद जैसे साहित्यकार ने उनको भविष्य का रचनाकार माना था।

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