शांत साधक जैसे नयनों में खिंची काजल की एक महीन लकीर, माथे पर खिलखिलाती बड़ी-सी टिकुली, लज्जा से आरक्त मुख और सद्यःस्नाता देह की केसर गंध में घुला काँच का रंगीन जादू… भारत में सुन्दरता का ज़िक्र सदैव आँखों में बसंत रचने से शुरू होता है। एक ऐसा बसंत जिसकी आस में मन, जीवन के सपने देखता है। जीवन, आकर्षण का पाठ पढ़ता है और आकर्षण, सृजन का राग छेड़ देता है। देह से विदेह होता सृजन का अनंत राग… लेकिन जो राग भारतीय मन पर दस्तक देकर अनायास ही उसे सोलह शृंगारों से सजी-धजी नवोढ़ा छवि के सानिध्य में ले जाकर खड़ा कर देता है, वही राग जब ब्लैक कॉफ़ी और सिम्फ़नी की धुन में घुलकर हठात जूलिया, सोफ़िया, डायना या मेडोना की उन्मुक्तता में खो जाता है, तब ज़ेहन में एक साथ कई सवाल उभरते हैं—कि क्या सौन्दर्य का मानस रचने में देश, काल, परिस्थितियाँ उत्तरदायी होती हैं? क्या संस्कृति, संस्कारों से परे सौन्दर्य दृष्टि को व्यक्तिगत उपलब्धि मान लिया जाना उचित है? और क्या वाक़ई सौन्दर्य के मानक गढ़ने में भौगौलिक प्राप्तियों का योगदान होता है?
पिछले एक दशक में इन सवालों ने सरहद पार कर कई संस्कृतियों से भेंट की। कई परम्पराओं से पूछताछ की। कई मूल्यों, मान्यताओं को जाँचा-परखा और कई मन टटोले। अंततः जो हाथ लगा, उसका सार यही है कि आकर्षण और विकर्षण के इस व्यापार की शुरुआत भले दृष्टि से होती है, किन्तु उस दृष्टि में मूल्यों का बोध मिट्टी जगाती है। अन्यथा क्या वजह है कि भारतीय शृंगार को अफ़्रीका में, अफ़्रीका की माँसलता को इंग्लैण्ड में और इंग्लैण्ड के खुलेपन को अरब देशों में अपनाइयत से स्वीकार नहीं किया जाता? शोधकर्ता क्लेयर वेबर अपनी साइट पर लिखते हैं कि—
“समाज में प्रचिलित सौन्दर्य के मानकों का वहाँ की मिट्टी से सीधा सम्बन्ध होता है। धार्मिक, सांस्कृतिक आदर्श भी इन्हीं भौगौलिक विशेषताओं के आधार पर अपना आकार ग्रहण करते हैं।”
बतौर उदाहरण अरब देशों को ही लीजिए। दूसरे देशों की तरह यहाँ भी ख़ूबसूरती का तार्रुफ़ चेहरे से शुरू होता है, लेकिन धार्मिक, सांस्कृतिक कारणों से लागू पर्दे की पाबंदी ख़ातूनों को बुर्क़े और हिजाब के पीछे छिपा देती है। ऐसे में चेहरा दिखाए बग़ैर ख़ूबसूरती की मिसाल क़ायम करने का ज़रिया बनती हैं सुरमई आँखें, जो हिजाब और बुर्क़े में ढँककर भी अपनी रोशनी से दुनिया को इस क़दर रोशन किए रहतीं है कि उनके गिर्द पनाह लेने के लिए न जाने कितने शायर, कितने दीवान, कितने कलाम और कितने क़िस्से बैचैन रहते हैं…
अतः सौन्दर्य का मनोविज्ञान दुरुस्त करने से बेहतर है कि पहले उसका भूगोल समझ लिया जाए। ख़ास तौर पर तब, जबकि मूल भाव समान होने पर भी भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक जलवायु सौन्दर्य दृष्टि को अलग-अलग सूत्रों से बुन रहीं हों। वैसे भी यह महज़ वेशभूषा और शृंगार के तरीक़ों में उलझा विमेनली सवाल नहीं है। इस सवाल की पृष्ठभूमि में वैचारिक और सैद्धांतिक अलगाव सक्रिय हैं। मानवीय सौन्दर्य की कलात्मक एवं रचनात्मक प्रकृति के बरक्स इस सैद्धांतिक अलगाव को भौगौलिक आधार पर परिभाषित करते हुए जूलियन रोबिन्सन कहते हैं—
“सौन्दर्य एवं आकर्षण हमारे जैविक निर्माण का आवश्यक हिस्सा हैं और विविध उपायों द्वारा सुन्दरता को स्थायी बनाने की कामना, एक जन्मजात मानवीय गुण है। किन्तु वास्तविक सौन्दर्य उस अव्यक्त आत्मा की अभिव्यक्ति है, जिसे सामाजिक संस्कार, मूल्य और विश्वास निर्देशत करते हैं।”
जूलियन के तर्क की गहराई समझने के लिए षट ऋतुओं का देश भारत सबसे सटीक उदाहरण है, जहाँ ग़ुस्सैल सूरज, शरारती हवा और मनमौज़ी मौसम का मिज़ाज झेलते-झेलते भारत का आम रंग गेहुआ और साँवला हो चला है। उस पर गर्म जलवायु हमेशा त्वचा की उम्र और रंगत चुराने की घात में रहती है। यही वजह है कि भारतीय मानस में गोरे रंग के प्रति एक असामान्य खिंचाव है। गोरी रंगत के सामने आते ही अन्न-वर्णी भारतीय जाने-अनजाने ख़ुद को हीन और कमतर महसूस करने लगते हैं। विश्वास न हो तो इतिहास के पन्ने पलटकर देख लीजिए। ब्रिटिश कम्पनी के समक्ष अपने आपको समर्पित कर देने के मूल में राजनीतिक कारणों के इतर, जिस मनोवैज्ञानिक कारण ने अहम् भूमिका निभायी थी, वह कारण भारतीय मन के अवचेतन में बसा यही खिंचाव था। यही नहीं, प्राचीनकाल में सामाजिक व्यवस्था के नाम पर भारतीय समाज का जो संस्तरणात्मक विभाजन किया गया, उस वर्णव्यवस्था का आधार भी तो यही ‘रंग’ था। गौर वर्ण अर्थात शुद्ध, पवित्र, ब्राहमण और श्याम वर्ण यानी शूद्र, अनार्य, दास, दस्यु। (और कालांतर में ब्लडी निग्गर भी…) रंग के लिए गढ़े गए यह शब्द समाज में खिंची एक लकीर-भर नहीं हैं। तारीख़ में शर्मिंदा से खड़े यह शब्द इस बात का प्रमाण हैं कि किस तरह से रंग एक देश में भेदभाव की दीवारें खड़ी कर देता है। इसी कारण भारत में गोरी रंगत, रेशमी त्वचा और यौवन से भरपूर चेहरा सुन्दरता की प्राथमिक शर्त हैं, जिन्हें पाने की चाहत में धूप और धूल से त्रस्त अबला भारतीय नारी तमाम तरह के प्रसाधनों, नुस्खों, सीख और सलाहों का चलता-फिरता केंद्र बन जाती है। हालाँकि धार्मिक विविधता वाले हमारे देश में ही सजने-सँवरने के अनेक चलन हैं, लेकिन मान्यताओं से बड़ा सच यह है कि हिन्दू, मुस्लमान, सिक्ख, बौद्ध या जैन आदि धर्मों की परतों के नीचे छिपी भारत की असल मिट्टी का स्वभाव एक जैसा ही है। सम्भवतः इसीलिए भारत में सुन्दरता एक दैहिक गुण से अधिक आत्मिक तत्व है। शुद्ध, पवित्र और उदात्त आध्यात्मिक तत्व। जब यह तत्व व्यवहार जगत में प्रकट होता है, तब समस्त भेदभाव मिट जाते हैं और तब एक साँवरे का कर्षण सभी आकर्षणों से बड़ा हो जाता है। एक भिक्षु सबका दाता बन जाता है। एक हिचकी ताजमहल बनकर मुस्कुराने लगती है और एक गुरुवाणी आत्मा में घुलकर धो देती हैं भीतर-बाहर का सारा कलुष…
ब्रायन मावर कॉलेज में अध्ययन के दौरान मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार के सामंती संस्कारों तले पलीं-बढ़ीं मीरा जैन को सौन्दर्य के इसी उदात्त आध्यात्मिक पक्ष ने यह जानने के लिए उकसाया कि संस्कृति, संस्कार, धर्म और सामाजिक स्तर व्यक्ति के सौन्दर्य बोध को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? अपनी पड़ताल में मीरा ने पाया कि सभ्यता की शुरुआत से अब तक सुन्दरता की परिभाषा में बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, किन्तु सुन्दर दिखने का निहित उद्देश्य आज भी वही है, जो कल था। यानी भौतिक सम्पन्नता, सामाजिक समृद्धि और चिर यौवन का प्रदर्शन। महज़ सुन्दर कहलाने भर के लिए स्त्रियों का तकलीफ़देह और महँगी प्रक्रियाओं से गुज़र जाना सिद्ध करता है कि सौन्दर्य के विचार में आकर्षण की उपस्थिति सहज एवं अनिवार्य है। फिर चाहे वह आकर्षण पश्चिमी मानकों पर आधारित हो या पूरब की सोच पर… लेकिन औद्योगीकरण, नगरीकरण और सूचना क्रांति की बदौलत पश्चिमीकरण की ओर उन्मुख समाज में सांस्कृतिक विश्वासों को उनके पारम्परिक रूप में ग्रहण करना अथवा व्याख्यायित करना मीरा उचित नहीं मानतीं। बल्कि वह इसे सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक विचलन से जोड़कर देखती हैं।
एक दृष्टि में यह उचित भी है। ठेठ गाँव में जींस, टीशर्ट, मिडी, मिनी की बढ़ती उपस्थिति से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सौन्दर्य के मानक सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक विचलन से किस हद तक प्रभावित हैं। और बात केवल जींस-टीशर्ट पहन लेने की नहीं है। इन पश्चिमी परिधानों ने समाज में जो कम्फ़र्ट ज़ोन विकसित किया है, उसके चलते अस्सी कली का घाघरा ही नहीं, पाँच मीटर की साड़ी भी उपेक्षिता बनी पड़ी है, पुरानी अलमारी की किसी दराज़ में। वह भारतीय समाज जहाँ भारी-भरकम वस्त्र और आभूषण सौन्दर्य के अनिवार्य सहोदर माने जाते हैं, जिनके पीछे अपनी प्राकृतिक स्थिति को छिपाकर हम न केवल अधिक सामाजिक हो जाते हैं, बल्कि अधिक सुरक्षित व सुन्दर भी, वहाँ स्वतंत्रता के नाम पर शनैः-शनैः मुखर होती देह, एक साथ बहस, विमर्श और सवाल है।
हालाँकि यह सही है कि आज जिस तरह पश्चिमी सौन्दर्य मानक, दुनिया-भर के सौन्दर्य मानकों पर हावी होते जा रहे हैं, वहाँ यह क़तई ज़रूरी नहीं कि आँख खोलते ही बच्चे को आवरण में ढँक देने वाले समाज में खुलेपन की माँग को सिरे से रिजेक्ट कर दिया जाए या न्यूडिटी हर बार ब्रेकिंग न्यूज़ बने।
लेकिन इस माँग को उस रूप में और उतने ही खुले मन से स्वीकार करना शायद हमारे लिए कभी मुमकिन नहीं होगा, जिस रूप में यह पश्चिम में सहज स्वीकार्य है। क्योंकि अंततः हमारे सांस्कृतिक विश्वास ही तो अवचेतन में बैठकर हमारी सौन्दर्य दृष्टि को निर्देशित करते हैं। हैं ना…!!
राम मनोहर लोहिया का लेख 'सुन्दरता और त्वचा का रंग'