सन्ध्या का समय था, हरखु चमार के घर भीड़ जमा थी, वर्षा में जर्जर हुई फूस की झोंपड़ी में एक दीया टिमटिमा रहा था। हरखू अपने घुटनों में सिर दबाए बेबस एक कोने में बैठ अपनी लुटी इज्जत पर आँसू बहा रहा था। हरखू की पत्नी झमकू घूँघट खींचे अपनी छाती पीटकर प्रलाप मचा रही थी।
घिसती-रेंगती सत्रह वर्षीय जमना आज किसी तरह अपने पिता की चौखट पर पहुँच गई थी, किन्तु उसे क्या पता था कि पिता की चौखट पर भी उसे इसी तरह अपमानित-पीड़ित होना पड़ेगा।
भीड़ में चेहरे स्पष्ट नज़र नहीं आ रहे थे, पर लोगों के मुँह से निकले व्यंग्य बाणों की आवाज़ स्पष्ट आ रही थी।
“छिनाल कैसी कूदती फिरती थी अपनी जवानी बताने को।”
“पता नहीं किन-किन के साथ मुँह काला करके आई है।”
“हरखू और झमकू को कहते कि अपनी बिटिया को सँभालकर रखे तो उल्टे हमारा ही मुँह बन्द करते कि मेरी लड़की तुम्हारी आँखों में क्यों चुभ रही है?”
“अब भुगतो, कौन करेगा शादी इस छिनाल से?”
गठरी बनी जमना के पास इन बाणों को झेलने के सिवाय कोई चारा नहीं था, वह बेहद उदास, अपमानित, टूटी हुई थी, किन्तु उसका दुःख-दर्द सुननेवाला वहाँ कोई नहीं था।
जमना का छोटा भाई केशू सब कुछ देख रहा था। उसको समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसे यह तो पता था कि तीन दिन पूर्व उसके खेत से उसकी जीजी के अचानक गायब हो जाने से घरवाले सभी परेशान थे, आस-पास के गाँवों में, रिश्तेदारों के यहाँ उसे ढूंढ आए थे। आज जब जीजी आ गई है तो सभी रो क्यों रहे हैं। ताई, चाची सभी उसे डाँट रही हैं। जीजी कुछ बोलती क्यों नहीं? चुपचाप आँसू बहाए जा रही है, माँ भी रो रही हैं? ये बातें केशू की समझ से बाहर थी।
उसे एक उपाय सूझा, वह दौड़कर कुएँ पर गया और सिंचाई करते अपने बड़े भैया को सारी स्थिति बता दी। हीरा सब कुछ समझ गया। उसने अपनी चरस छोड़ी और बैल लेकर घर की ओर रवाना हो गया। क्रोधाग्नि से कभी-कभी उसका समूचा शरीर कँपकँपा जाता।
घर पर लोगों का हुजूम देखकर उसकी भवें तन गई। अपनी बहिन की दुर्दशा देख उसका जवान खून खोलने लगा। उसकी आँखों में आग बरसने लगी। वह भीड़ को चीरता हुआ अपनी बहिन के पास पहुंचा, जमना अपने भाई से गले मिलने के लिए लड़खड़ाती हुई उठने लगी, किन्तु उसकी बेबसी को भाँप हीरा स्वयं नीचे बैठ गया और उसे गले लगा लिया।
जमना सिसक-सिसककर रोने लगी। उसकी हिचकियाँ बँध गई, उसे लगा कोई तो उसकी पीड़ा समझने वाला मिला। भाई के बदले हुए तेवर और बहिन के प्रति सहानुभूति जताते देख भीड़ वहाँ से चुपचाप खिसक ली। हीरा की इस संवदेनशीलता ने मरहम का काम किया। जमना की भी हिम्मत बँध गई।
थोड़ी देर बाद दोनों शान्त हुए। जमना के आँसूओं से भीगा हीरा का सीना ठंडा होने की बजाय तपने लगा था। वह अपनी बहिन की आबरू लूटनेवालों को सज़ा दिलाना चाहता था। वह अपने पिता की ओर मुख़ातिब हुआ, उन्हें ढांढस बँधाया।
“बापू रोओ मत, जब तक हीरा की जान है, वह अपनी बहिन की बेइज्जती का बदला लेकर रहेगा।”
सिर पीटती माँ को सीने से लगाते हुए हीरा ने वचन दिया और कहा, “माँ… मैं तुम्हारी कसम खाकर कहता हूँ, जब तक जमना की इज्जत लूटनेवालों से बदला नहीं ले लूंगा, तब तक चैन से नहीं बैठूँगा… तुम्हारी कसम माँ, चैन से नहीं बैठूँगा।”
जमना अब पूरी तरह से शान्त हो चुकी थी। हीरा ने उसे बिना डर के, बिना संकोच के सब कुछ सही-सही बता देने को कहा।
जमना को हिम्मत बँधी। उसने बताया, “जब मैं नाले के पारवाले खेत की मेड़ पर घास काट रही थी, ठाकुर का बड़ा लड़का सुमेर सिंह और उसका चाचा नत्थू सिंह चुपके से आए। मैं चिल्लाती उसके पहले ही दोनों ने मुझे पकड़कर मेरे मुँह में कपड़ा ठूस, चाकू की नोक पर मुझे बहुत दूर सुनसान जगह पर ले गए और दोनों ने मेरे से मुँह काला किया। इतने दिन उसी वीरान कोठरी में मुझे बन्द रखा। वे दोनों समय मेरे सामने रूखी-सूखी रोटी डालते और मेरी दुर्गत करते।”
उसने आगे कहा, “भैया मैंने उनसे काफ़ी अनुनय-विनय की कि आप लोग दिन के उजाले में हमारी परछाई से भी परहेज़ करते हैं। हमें छूते ही आप अपवित्र हो जाते हैं किन्तु रात के अंधेरे में हमारा पसीना और होठों से … पर भी आप अपवित्र नहीं होते? ऐसे लिपट जाते हैं, जैसे आप और हम में कोई फ़र्क नहीं है? आपकी छूत-छात और जातपात कहाँ चली गई? इस पर उन्होंने मुझे धिक्कारते हुए कहा, ‘ज़बान चलाती है हरामजादी। तुझे पता नहीं, अब तू हमारे चंगुल से बचकर जा भी नहीं सकती कहीं। हमारा जब तक जी चाहेगा, तब तक तेरा भोग करेंगे और जब जी भर जाएगा मारकर यहीं जंगल में फेंक देंगे, चील-कौए खा जाएँगे’।”
“कल रात दोनों ही कुछ अधिक पी गए थे। उन्हें अपनी सुध भी नहीं रही और मैंने रात के अँधेरे में ही वह कोठरी छोड़ दी। मौत तो मेरी निश्चित थी, चाहे उनके चंगुल में रहूँ या जंगल से होकर यहाँ आऊँ। प्रकृति ने मेरा साथ दिया और मैं गिरते-पड़ते अपने आपको बचाते हुए घर आ पहुँची हूँ। अब मैं क्या करूँ भैया। मैं कहीं की नहीं रही।”
कहते-कहते वह फिर फफककर रो पड़ी।
“तू चिन्ता मत कर जमना! धिक्कार है मुझे जो मैंने इनसे तुम्हारी इज्जत का बदला नहीं लिया। मैंने माँ को भी वचन दिया है। वह भी इसी मुसीबत की मारी है। मैं इन पापियों-चांडालों को बता दूँगा कि अछूत गरीब की भी इज्जत होती है और वह भी इज्जत से जीना जानता है। इज्जत केवल इनकी ही बपौती नहीं है।” हीरा गुस्से से काँप रहा था।
जमना से पूरी जानकारी लेने के बाद वह निकट के थाने में गया, ठाकुरों के विरुद्ध रिपोर्ट लिखवाने। थानेदार ने रिपोर्ट लिखने के पाँच सौ रुपये माँगे। उसके पास कहाँ से आते पैसे। वह घर गया और अपनी माँ की हँसली (गले में पहनने का चाँदी का जेवर) गिरवी रखकर पैसे ले आया और थानेदार को दे दिए। कुछ दिनों बाद पता चला कि सुमेर सिंह ने थानेदार को मामला रफा-दफा करने के लिए भारी-भरकम रिश्वत दी है। हीरा जब भी थानेदार से पूछता तो वह कहता, “तुम्हारे कोई गवाह हैं? उनको बुला लाओ।” कहकर टाल देता। हीरा गवाही कहाँ से लाता। उसकी गवाही कौन देता? उसे पता लग गया, थानेदार कुछ करने वाला नहीं है।
सुमेर सिंह का एक रिश्तेदार मन्त्री भी था। वह भी सुमेर सिंह को संरक्षण दे रहा था। थानेदार को भी टेलीफ़ोन कर दिया था। मन्त्री के संरक्षण से सुमेर सिंह के हौसले और भी बढ़ गए। वह एक दिन अपने अन्य साथियों सहित चमारों की बस्ती में आया और धमकी देने लगा।
“अभी क्या हुआ है? अभी तो एक को उठाकर ले गए हैं, सभी कलियों की बारी आएगी, घबराना मत। अभी बहुत कुछ बाकी हैं। किसी ने हमारे विरुद्ध गवाही दी या ज़बान खोली तो ये बन्दुक देख लो, भूनकर रख देंगे। झोंपड़ियों में आग लगा देंगे। तुम्हारी एक भी औरत नहीं बचेगी, इसलिए खैर इसी में हैं कि चुपचाप हम जो कहें, वो करते जाओ। हमारे काम में दखल मत दो। समझे!” सुमेर सिंह चिल्ला रहा था।
सदियों से अपमान सहने के आदी चमार कुछ नहीं बोले। इन धमकियों को सिर-आँखों पर रखते हुए कुछ बुजुर्ग तो हाथ जोड़कर उनके सामने आ गए और गिड़गिड़ाने लगे, “कुछ नहीं बोलेंगे हुजूर, आप तो हमारे अन्नदाता हो। जल में रहकर मगर से बैर कैसे हो सकता है?”
बुजुर्गों के दूसरी ओर कुछ नौजवान भी खड़े थे। उनका खून खौल रहा था। किन्तु वे बुजुर्गों की बात के आगे चुप थे। उनके मुँह पर ताले जड़ दिए गए थे। हीरा की झोंपड़ी थोड़ी दूर पर थी। वह झोंपड़ी में एक टूटी खटिया पर बैठा बीड़ी पी रहा था। सुमेर सिंह की धमकियाँ सुनकर खून खौल गया था। उसकी मुट्ठियाँ भिंच गई थीं। वह बदला लेने की ताक में था ही। जो मौत को गले लगा ले वह किसी से नहीं डरता। बहिन ने पहले ही मौत को गले लगा रखा था। हीरा ने तुरन्त निर्णय लिया। अपने बहिन को पुकारा और समझाया, “बहिना! ये सरकार और थानेदार इन बलात्कारियों को सज़ा नहीं दे सकते। ये सब तो नपुंसक हो गए हैं। तू खड़ी हो जा और मेरा साथ दे। उन्हें सज़ा हमें ही देनी पड़ेगी। जिसकी बहिन-बेटी पर गुज़रती है, उसे ही पता लगता है।”
हीरा अपनी बहिन को और कुछ समझाता, इससे पूर्व ही सुमेर सिंह दहाड़ता हुआ इसकी झोंपड़ी तक पहुँच गया। अब हीरा से नहीं रहा गया। उसने हाथ में फरसा ले लिया। अंगारा बने हीरा ने अपनी झोंपड़ी में से निकलकर सीना ठोकते हुए उसे ललकारा, “सुमेर सिंह, तेरी मौत ही तुझे मेरे पास खींच लाई है। अब तू कान खोलकर सुन ले। मेरी रगों में भी खून ही बहता है, पानी नहीं। हम तुम्हारी इज्जत करते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि हमारी बहिन-बेटियों की इज्जत से तुम्हें खेलने दें। आज वह समय आ गया है कि मैं तुझे अपनी मर्दानगी का परिचय दे दूँ।”
हीरा के वचन सुनकर सुमेर सिंह क्रोध से काँपने लगा, “एक चमरे की यह हिम्मत। ठहर तुझे अभी बताता हूँ कि हमसे ज़बान लड़ाने का अंज़ाम क्या होता है।” कहते हुए हीरा का काम तमाम करने के लिए वह बन्दूक का घोड़ा दबाने ही वाला था कि हीरा चीते-सी फुर्ती से उसपर कूद पड़ा।
सुमेर सिंह के हाथों से बन्दूक जा गिरी। अब वह निहत्था था। हीरा के हाथ से भी फरसा दूर जा गिरा। दोनों गुत्थम-गुत्थ हो गए। हीरा सुमेर सिंह से भारी पड़ रहा था। हीरा का साहस देखकर अन्य युवक भी अपनी झोंपड़ियों से लट्ठ लेकर मैदान में आ कूदे। फिर तो औरतें भी पीछे नहीं रही। देखते-ही-देखते वहाँ एक युद्ध-सा दृश्य उपस्थित हो गया। सुमेर सिंह लड़ते-लड़ते थक गया। वह निढाल होकर गिर पड़ा। उसका चाचा भीड़ को उमड़ी हुई देख चुपचाप वहाँ से भाग निकला। जमना आँखें फाड़े अपनी इज्जत लूटनेवाले नरपिशाच को देख रही थी। अब उसकी बारी थी। अंगारा बनी जमना दौड़ी-दौड़ी घर में गई और कोने में पड़ी दराती उठा लाई।
सरकार और पुलिस जिसे सज़ा नहीं दे पाई, उसे जमना ने दे दी। अपना प्रतिशोध पूरा किया। उसने सुमेर सिंह के पुरुषत्व के प्रतीक अंग को ही काटकर शरीर से अलग कर दिया। वह तड़प रहा था। अब उसका बचना सम्भव नहीं था।
यदि वह बच भी जाता तो उसकी ज़िन्दगी मौत से भी बदत्तर होती। एक हिजड़े की ज़िन्दगी। अब वह किसी अछूत गरीब लड़की की इज्जत से नहीं खेल पाएगा। उसके किए की इतनी ही सज़ा काफ़ी थी।