मेरी इच्छा है कि सुबह से दोपहर, दोपहर से रात तक अकेली घूमती रहूँ। नदी के किनारे, गाँव के मैदान में, रोशनी में, शहर के फुटपाथ पर, पार्क में, अकेली, सिर्फ़ अकेली चलती रहूँ। बहुत इच्छा होती है कि सीताकुंड पहाड़ पर जाऊँ। मन करता है, एक दिन अचानक बिहार के सालवन में जाकर पूरी दोपहर बिताऊँ। मन करता है कि सेंट मार्टिन के समुद्र में उतरकर गाँगचील (एक समुद्री पक्षी) का खेल देखूँ। इच्छा होती है कि गहन उदासी भरे क्षणों में घास पर लेटे-लेटे आकाश देखती रहूँ। मन करता है कि संसद भवन की किसी सीढ़ी पर अकेली बैठी रहूँ, किसी ख़ुशनुमा शाम में पेड़ से पीठ टिकाए यों ही अलसाई खड़ी रहूँ, क्रिसेंट झील के पानी में पूरी शाम पाँव डुबोए पड़ी रहूँ और फिर अचानक शीतलक्षा नदी में नौकाविहार करूँ।
मैं जानती हूँ, बहुत अच्छी तरह जानती हूँ कि यदि मैं अपनी इच्छाएँ पूरी करने लगूँ तो मुझ पर लोग पत्थर बरसाएँगे, थूकेंगे, धिक्कारेंगे। मुझे अपमानित होना पड़ेगा, बलात्कार का शिकार होना पड़ेगा। मुझे कोई ‘पागल’ कहेगा, कोई बदचलन कहेगा, यद्यपि यही सब करते हुए किसी पुरुष को किसी के व्यंग्य-बाण से आहत नहीं होना पड़ता। किसी पुरुष के साथ अपहरण, धोखाधड़ी, बलात्कार, हत्या जैसे हादसे नहीं गुज़रते। हादसे सिर्फ़ स्त्री के साथ ही गुज़रते हैं। पूछा जाता है—स्त्री एक हमसफ़र पुरुष के बग़ैर क्यों घूमती है? पुरुष स्वभाव की विचित्रताएँ उसे शोभा देती हैं, लेकिन एक स्त्री फुटपाथ पर क्यों टहलेगी, क्यों पेड़ की छाँव में खड़ी रहेगी, कैसे सीढ़ी पर अकेली बैठी रहेगी और क्यों घास पर लेटेगी? स्त्री के लिए ऐसी तमाम इच्छाएँ पालना उचित नहीं है। स्त्री को तो घर पर बैठे रहना चाहिए। उसके लिए घर में रोशनदान की व्यवस्था है। उस रोशनदान की भेदती हुई जो रोशनी और हवा उसके शरीर में लगती है, क्या वही ज़िन्दा रहने के लिए काफ़ी नहीं है।
हाँ, काफ़ी है। ज़िन्दा रहने के लिए उतनी हवा-रोशनी काफ़ी है। सभी पुरुष, स्त्री के सिर्फ़ ज़िन्दा रहने तक को ही पसन्द करते हैं, क्योंकि स्त्री की उन्हें ज़रूरत है। भोग के लिए, वंशबेल को बनाए रखने के लिए। स्त्री के बग़ैर न तो पुरुष का भोग सम्भव है और न ही वंश-रक्षा। स्त्री के बिना पुरुष के लिए अधिकार जताने, ताकत आज़माने, ऊँचे स्वर में बोलने और शारीरिक बल दिखाने की कौन-सी जगह रह जाएगी! ऊपरवाले अपने ही बनाए नीति-नियमों के मुताबिक़ नीचेवालों का शोषण करते हैं। सबल हमेशा दुर्बल पर चढ़ाई करता है। उच्चवर्ग हमेशा मौक़ा ढूँढता है—निम्नवर्ग या निर्धनों को फूँककर उड़ा देने का। इसीलिए स्त्री पर हमेशा से पुरुष का अधिकार चला आया है—उसे जी-भर उपभोग और उससे प्यास बुझाने का, उसे आहत करने का। स्त्री निम्न श्रेणी का प्राणी है, दुर्बल है; असहाय, असंगत, शरणार्थी है। इसीलिए स्त्री को ज़िन्दा बनाए रखकर उस पर चढ़ाई करने की इच्छा सभी सज्जनों में रहती है।
जैसे पिंजड़े में पंछी के लिए भी रोशनी आने की व्यवस्था रहती है, उसको समय पर दाना-पानी दिया जाता है, चन्द शब्द सिखाए जाते हैं, वैसे ही स्त्री के लिए भी किया जाता है। स्त्री के लिए भी एक रोशनदान का इंतज़ाम रहता है, सुबह-शाम खाना दिया जाता है और कुछ तयशुदा सामाजिक व्यवहार सिखाया जाता है। स्त्री को उसकी सीमित बातचीत, सीमित राह, सीमित सपनों के बारे में सम्यक् ज्ञान दिया जाता है। पिंजड़े में बंद पंछी की ही तरह स्त्री खुले आकाश, खुले मैदान, वन-जंगल और अनंत हरियाली के आनंद से वंचित रहती है।
स्त्री को दुर्बल कौन समझते हैं? जो कहते हैं कि स्त्री शारीरिक रूप से दुर्बल है, वे ग़लत कहते हैं। वे झूठ बोलते हैं। आज भी अगर एक नर और एक नारी शिशु को भरे तालाब में छोड़ दिया जाए तो जिस शिशु की मौत होगी, वह नर शिशु ही होगा। यदि नारी शिशु का फेफड़ा या हृदय नर शिशु से ज़्यादा शक्तिशाली है, यदि प्रतिरक्षा या ज़िन्दा रहने की क्षमता नारी शिशु में अधिक है, तो कैसे एक झटके में यह राय दे दी जाती है कि स्त्री दुर्बल, कोमल, भीरु और लाजवंती होती है।
दरअसल ये सब स्त्री पर आरोपित किए गए सामाजिक विशेषण हैं। स्त्री यदि विवेक-बुद्धि से परिचालित होने और ममत्व या प्यार धारण करने की अधिक क्षमता रखने के कारण हिंसक युद्ध में नहीं कूदती, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अबला है। आदिम युग में स्त्री-पुरुष दोनों नोंच-खसोटकर ही जीव-जंतुओं का माँस खाते थे। कहीं भी यह प्रमाणित नहीं हुआ कि स्त्री दुर्बल है, इसलिए वह नोंचकर नहीं खा सकती। स्त्री को गर्भवती होना पड़ता है, इसलिए गर्भरक्षा के उद्देश्य से उसे कम परिश्रम का भी अभ्यस्त होना होता है। शिकार पर कम जाना पड़ता है, छीना-झपटी कम करनी पड़ती है। देह-बल की अपेक्षा वह बुद्धि के द्वारा जीवन-निर्वाह करती है। संतान के प्रति उसमें ममता पनपती है। प्यार के सामने वह झुक जाती है, उसमें डूब जाती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि स्त्री दुर्बल, डरपोक और लाजवंती है।
स्त्री को डरना एवं लज्जालु होना पुरुष-प्रधान समाज ने सिखाया है, क्योंकि भयभीत एवं लज्जालु रहने पर पुरुषों को उस पर अधिकार जताने में सुविधा होती है। इसीलिए डर और लज्जा को स्त्री का ‘आभूषण’ कहा जाता है। समाज में कुछ ही लोग होंगे जो निर्भीक और लज्जाहीन स्त्री को बुरा नहीं कहते हों।
चूँकि डर एवं लज्जा को ही स्त्री का मुख्य गुण समझा जाता है, चूँकि स्त्री के लिए सीमित रास्ता ही निर्धारित किया जाता है, इसीलिए यदि वह रास्ते में, गलियारे में, रेस्तरों में अकेले चलती या बैठती है, तो लोग उसकी ओर हैरत से देखेंगे, सीटी बजाएँगे, उससे सटकर खड़े होंगे और परखेंगे कि यह लड़की ‘वेश्या’ तो नहीं, क्योंकि वेश्या के अलावा कोई भी लड़की निडर होकर नहीं चलती। वेश्या के अलावा पूरे शहर में कोई भी अकेला, स्वच्छंद, सीमा लाँघकर रास्ते में नहीं निकलता।
जो स्त्रियाँ घर पर बैठी रहती हैं, जो अभिभावक या पुरुषों के साथ निरापद घर से बाहर जाती हैं, या अकेले ही मान्य सीमा के अंदर घूम-फिरकर ज़रूरत पूरी करते हुए घर लौट आती हैं, समाज उन्हें भली औरत का दर्जा देता है। इस ‘भद्रता’ का अतिक्रमण करने पर स्त्री को ‘वेश्या’ कहकर गाली दी जाती है। पुरुष गण ‘वेश्या’ को गाली ज़रूर देते हैं, लेकिन वेश्या के बग़ैर उनका काम भी नहीं चलता। अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने ख़ुद ही अपने दायरे में वेश्यालय खोल रखे हैं।
पुरुष ‘वेश्या’ न कह दें, इसलिए स्त्री दोपहर के समय किसी खुले मैदान में अकेले नहीं घूमती। इच्छा होने पर भी वह चंद्रनाथ पहाड़ पर नहीं जाती। चाहकर भी स्त्री नदी-तट से लगे हिजला पेड़ की छाया में बैठकर दो-एक पंक्तियाँ गा नहीं सकती। इच्छा के बावजूद निर्जन फुटपाथ पर अकेले नहीं चलती। स्त्री ‘वेश्या’ सम्बोधन से बहुत डरती है, इससे वह अपने को बहुत बचाकर रखती है। पुरुष की नज़रों में ख़ुद को आकर्षक बनाए रखने के लिए स्त्री साज-सिंगार करती है। आँखों में, गालों और होंठों पर रंग चढ़ाती है। पूरी दुनिया में शृंगार के प्रसाधनों का उत्पादन जिस रफ़्तार से बढ़ रहा है, मुझमें यह क्षमता नहीं है कि मैं इसका अंदाज़ा भी लगा पाऊँ। वेश्याएँ शृंगार करती हैं असामाजिक ग्राहक की आशा में और भद्र महिलाएँ सजती हैं सामाजिक ग्राहक की आशा में। उद्देश्य दोनों का ही ग्राहक पाना है। जिसे जितना अच्छा ग्राहक मिलता है, उसको इस लोक की सुविधाएँ भी उतनी ही अधिक मिलती हैं। स्त्री को वे सुविधाएँ दे रहे हैं, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने को दे रहे हैं, इसीलिए स्त्री के पैरों में वे ज़ंजीरें पहनाते हैं। वैसे ही, जैसे बकरी को मैदान में चराने के लिए छोड़कर उसके गले की रस्सी को एक खूँटे से बाँध दिया जाता है। स्त्री को गाय, बकरी, भेड़ की तरह ही एक नपे-तुले दायरे में चलने-फिरने दिया जाता है। पुरुष वर्ग रस्सी से बँधी स्त्री का स्वाद भी पाना चाहता है और रस्सी तुड़ाई हुई स्त्री का भी। मुख्य रूप से पुरुष-रसना को तृप्त करने के लिए ही स्त्री को एक बार घर में बन्दी होना पड़ता है, तो एक बार घर छोड़ना पड़ता है। स्त्री आख़िर स्त्री ही है, चाहे वह वेश्या हो या कुलवधू। कष्ट झेलने के लिए ही उसका जन्म हुआ है।
समाज की स्त्रियाँ, पुरुषों के डंक मारने के डर से, इस डर से कि लोग उसे ‘बुरा’ कहेंगे, चाहत के बावजूद एक बार महास्थानगढ़ घूमने नहीं जा सकती, श्रीमंगल के चाय बाग़ान में निर्द्वन्द्व होकर टहल नहीं सकती। ब्रह्मपुत्र के पानी में ख़ुशी से तैर नहीं सकती, सुंदरवन में पूर्णिमा की चाँदनी में नहीं नहा सकती। एकांतिक मानुष जीवन। यह जीवन वह मन-मर्ज़ी से नहीं जी सकती। इस जीवन को वह मनुष्य के पास, आकाश और नक्षत्रों के पास, जल और हवा के पास, हरे-भरे जंगलों के पास, निर्जन नदी के पास लाकर नहीं पहचान सकती। वह अपने सभी अरमानों, सभी चाहतों और सपनों के घर को जलाकर पुरुष के घर को आलोकित करती है।
स्त्री के इस अर्थहीन जीवन के प्रति शोक-संताप से भरी हुई मैं लज्जित हूँ। पाठकगण, आप में यदि इंसानियत नाम की कोई चीज़ है तो इस पर आप भी लज्जित हों।
तस्लीमा नसरीन का आत्मकथ्य 'कैसा है मेरा जीवन'