उसे पसन्द थीं आलीशान कोठियाँ
सज्जा के सब सामान
और बंधनमुक्त प्रेम।
मैंने तानाशाह बनकर लूट लिए
कुछ मुफ़लिसों के घर
और बनवा दी एक बड़ी सी कोठी
जिसमें
सजा दी बहुत सी सुन्दर तस्वीरें
दीवारों में जहाँ-जहाँ ठोकी गयी कील
वहाँ ठक-ठक की जगह धक-धक को सुना मैंने
ख़ुश होकर उसने चूमा मुझे देर तक
और गाती रही वो अपनी चाहतों के गीत।
मैं प्रेम में हारा हुआ प्रथम सिपाही नहीं था
जिसने किया हो प्रेम, वो जानता है
प्रेम एक ऐसा युद्ध है
जिसमें सिपाही जिरहबख़्तर नहीं पहनता
प्रेमी जब भी उठाता है कटार
प्याज छीलकर रोने का सुख उठाता है
जब भी लेता है हाथ में बंदूक
खा लेता है गोली, नींद की गोली समझकर।
एक दिन
तानाशाही के ख़िलाफ़ बग़ावत छिड़ गयी
उसने मेरे सिहरते होंठों पर चुम्बन धरा
काँपते हाथों को हथेलियों की गरमाहट दते हुए कहा-
“तीसरी ख़्वाहिश के पूरा होने का वक़्त आ गया
बाहर खड़ी भीड़ तुम्हें बरी कर देगी दुनिया से
मैं बंधनमुक्त हूँ, मुआफ़ी चाहती हूँ।”