हरियर धान की तरह होती हैं लड़कियाँ
बोयी कहीं और जाती हैं
फिर सलीक़े से उखाड़ रोप दी जाती हैं कहीं और
नयी जगह को भी अपना मान अंकुरा आती हैं
पनपती… बढ़ती… बालियों में बिखरा देती हैं मुस्कान
चावल के सफ़ेद दाने बन चमक उठती हैं दंत पंक्तियाँ
और महमह महक उठती हैं लड़कियाँ
तरह-तरह के नामों से जानी जातीं
अपने हर रूप में धान-सी ही ज़रूरी हैं लड़कियाँ
लहकती गमकती बासमती-सी लम्बी पतली नाज़ुक हों
या मोटिया भात-सी ललछउँ बेडौल
जीवन का आधार बनतीं
तृप्त भी कर जाती हैं लड़कियाँ
होती हैं तमाम ज़िन्दगियों की ऊर्जा के मुख्य स्रोत-सी
अकेले जीवन दे जाने की क्षमता होती हैं लड़कियाँ
कठोर खोल में छिपे कोमल भात-सी
दूधिया एहसास होती हैं लड़कियाँ
गोलवां गेहूँ से भूरे लड़के
जिस खेत में बोये जाते हैं काट भी लिए जाते हैं वहीं से
कभी नहीं जान पाते जन्मभूमि से जबरन उखाड़ दिए जाने की पीड़ा
वह सीख भी नहीं पाते तमाम उम्र
परायों को अपना बनाने का हुनर
नहीं समझ पाते हर हाल में ख़ुश रहने वाली लड़कियों की
मुस्कुराहटों के पीछे का सबब
पीट-पीट कर खोल से निकाल लिए जाने के दर्द से बेख़बर
गेहूँ जैसे सलीक़े से निकाल लिए जाते हैं लड़के
रंग-रूप, के आधार पर नहीं होती उनकी पहचान
सुगन्ध की तीव्रता नहीं तय करती उनके लिए नयी जमीन
लड़के पहचानते हैं केवल अपनी ज़मीन का स्वाद
अपनी मिट्टी की मिठास
अपने देस की हवा
गेहूँ के पौधे नहीं उगते धान के साथ
नहीं चख पाते धनियर खेतों की मिट्टी में जज़्ब
तमाम बालियों के कोनों से झरा खारापन।