‘Doosri Taraf Se Hari Hai Dharti’, a poem by Amandeep Gujral

‘जब तक इस घर को वारिस नहीं दे देती
तब तक हर अधिकार से वंचित हो तुम’
कहकर दुत्कारी गई औरतें
भावनाओं से भी हो जाती हैं बाँझ
निःशब्द और ख़ानाबदोश

खानाबदोश-सी ढूँढती हैं वो कोना
जहाँ तिरोहित कर सकें
आँखों के पोरों तक पँहुचा नमक
उकेर सकें अपने जज़्बात
किसी काग़ज़ के कोने पर

काम के बीच कुछ वक़्त उधार माँग
झाँकती है बाहर
ढूँढने अपना खिड़की-भर आसमान,
देखती हैं चिड़िया
और दोहराती हैं अपने आप में
किसी ने बताया नहीं तुम्हें
कितनी सुन्दर हो तुम
नील चिरैया!
चहचहाती, फुदकती
कितनी प्यारी लगती हो!
तुम आसमान में ही बनाना आशियाना अपना
पँखों को देना मज़बूती और नाप लेना सारा आकाश।
तुम्हें आभास नहीं शायद
कि खिड़की भर आसमान ढूँढते क़ैदियों के जज़्बात
नदी बनने के पहले ही रेगिस्तान में तब्दील हो जाते हैं…

कुछ दानों का लालच
तुम्हारी स्वतन्त्रता में सेंध है,
पता है तुम्हें धरती सिर्फ़ दूसरी तरफ़ से ही
हरी दिखायी देती है…

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