वो दुःखी था क्योंकि
उसने दुःख का निरस्तीकरण अभी तक देखा नहीं था

वो दुःख जो ग़रीब माँ के पेट से जन्म लेता है,
हर बार जिसके जन्म की कोई वजह
कोई रोकथाम नहीं होती,
जो बाप की जेब और आत्मा पर हर तरह से बहुत भारी पड़ता है

जो मकानों की छत और देहरी के अन्दर
औरत का रूप लेकर
दो दीवारों के जुड़े हुए कोनों में चुपचाप खड़ा रहता है

शहरों के पाॅश इलाक़ों में
साफ़ दरवाज़ों पर पड़े
पैरदान पर अस्थमा रोगी की तरह साँसें भरता है

बार, क्लब, रेडलाइट एरिया से लेकर
थाने, कचहरी तक
जो आदमी को घसीटकर लाने का दम रखता है,
वो दुःख जिसको वैश्याओं और बार गर्ल ने
बेहयाई से अपना लिया है
बड़े लोगों ने जिसे सुनहरे अक्षरों में सजते
अपने नाम के नीचे काले रंग में छुपा लिया है

दुनिया ने तुष्टिकरण की तलैया में
सुख के फव्वारे लगा लिए हैं
जिनके मुँह से उगला हुआ
झागदार पानी
दुःख के गाढ़े रंग को धोता रहता है

इन फव्वारों की गर्दनें उस सुख से छिल चुकी हैं
पर फिर भी हर बार पानी फेरकर
वो कर देना चाहते हैं
दुःख का निरस्तीकरण…

Book by Pranjali Awasthi:

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