मेरा दुःख
नितान्त मेरा था
जो कुछ-कुछ
मेरी माँ या उनके जैसी तमाम
औरतों के दुःख-सा
ग़ैर-ज़रूरी
मगर ख़तरनाक घोषित था
जिन्हें
घर-गृहस्थी में फँस, न जीने की फ़ुर्सत थी
न मरने की।
जिनके काम का हिसाब मालिकों ने रखा नहीं
और माथे पर नकारेपन की तख़्ती लटका
भोगते रहे सुख हमारे हिस्से का भी
और कहते रहे
तुम्हारा न होना ही ठीक था।
बातों और गीतों की शौक़ीन
हम औरतों ने
अपने दुःखों को चुपचाप
ख़ामोशी की ख़ूब गहरी क़ब्रों में
दफ़ना दिया।
इन क़ब्रों में अपने ज़िन्दा दुःखों को लिये
बात-बेबात हँसतीं
ज़िन्दगी के खटराग में खटतीं
हम औरतें
फिर भी ढूँढ निकालतीं
अपनी स्मृतियों के पिटारे से कोई गीत
और गाती ख़ूब मन से
या फिर रातरानी बन महकती रहतीं
घनघोर रातों में भी।
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