मेरा दुःख
नितान्त मेरा था
जो कुछ-कुछ
मेरी माँ या उनके जैसी तमाम
औरतों के दुःख-सा
ग़ैर-ज़रूरी
मगर ख़तरनाक घोषित था
जिन्हें
घर-गृहस्थी में फँस, न जीने की फ़ुर्सत थी
न मरने की।

जिनके काम का हिसाब मालिकों ने रखा नहीं
और माथे पर नकारेपन की तख़्ती लटका
भोगते रहे सुख हमारे हिस्से का भी
और कहते रहे
तुम्हारा न होना ही ठीक था।

बातों और गीतों की शौक़ीन
हम औरतों ने
अपने दुःखों को चुपचाप
ख़ामोशी की ख़ूब गहरी क़ब्रों में
दफ़ना दिया।

इन क़ब्रों में अपने ज़िन्दा दुःखों को लिये
बात-बेबात हँसतीं
ज़िन्दगी के खटराग में खटतीं
हम औरतें
फिर भी ढूँढ निकालतीं
अपनी स्मृतियों के पिटारे से कोई गीत
और गाती ख़ूब मन से
या फिर रातरानी बन महकती रहतीं
घनघोर रातों में भी।

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किताब सुझाव:

पूर्णिमा मौर्या
कविता संग्रह 'सुगबुगाहट' 2013 में स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित, इसके साथ ही 'कमज़ोर का हथियार' (आलोचना) तथा 'दलित स्त्री कविता' (संपादन) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'महिला अधिकार अभियान' की कुछ दिनों तक कार्यकारी संपादक रहीं। विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं व पुस्तकों में लेख तथा कविताएं प्रकाशित।