बेल दूँ
जब भी बनाती हूँ लोई
और बेलती हूँ रोटी
तो मन होता है
दुनिया की सारी गोल मोल चीजें
बेल दूँ।
बेल दूँ धरती
बेल दूँ सूरज
बेल दूँ व्यवस्था
बेल दूँ समाज
बेल दूँ सदियों का उत्पीड़न
और
पका दूँ उसे
चेतना की आग में।
नींबू
घर को हर बुरी नज़र से
बचाने को तैनात
दरवाज़े पर।
सारे टोने-टोटकों को
अपने ऊपर
ले लेने को तत्पर।
जो बन अचार
सदियों से
बढ़ाती रही ज़ायका।
हर बार निचोड़कर रख दिया
स्त्री को
नींबू की मांनिद,
और वह है कि
कमबख़्त
सूखकर भी
दाग़ छुड़ाती रही
तुम्हारे ऐबों का।
चुप्पी
हर रोज़ कितनी बातें
चाहे-अनचाहे
निशान
छोड़ ही जाती हैं
मन पर स्त्री के।
धोते हुए बासन-कपड़े
हर दाग़
रगड़कर-फटककर
छुड़ा देना चाहती है।
सिलती है कपड़े
उसी तरह तन-मन भी
जानते हुए
कि कपड़े
और तन-मन
का अन्तर बहुत है।
लेकिन फिर भी
करती है यही
जिससे जी सके
चुपचाप
ख़ुशी से
पर क्या
ऐसा हो सकता है?