हममें ही डूबा है वह क्षितिज
जहाँ से उदित होता है
सबका आकाश
फेंकता ऊषाएँ
ऋतुएँ, वर्ष, संवत्सर
उछालता
व्यर्थ है प्रतीक्षा
उन अश्वों के टापों की
जो दो गहरे लम्बे सन्नाटों
के बीच
हमें छोड़ जाते हैं
एक उखड़े पुल के विध्वंस-सा
व्यर्थ है प्रतीक्षा उन सूर्यों की
जिनका प्रकाश
हमें सौंप गया अपना अँधियारा
और अंधापन।
अब जब कभी भी भोर होगी
होगी, इस अपनी ही आग से
चुप्पी का विशाल नीला घण्टा
जब भी घनघनाएगा
अपने ही कण्ठ से।
न हिले
वह तिलस्म द्वार
तिल-भर भी न हिले
जो मिलने नहीं देता है
एक उमड़ता सैलाब
दूसरे सैलाब से
एक द्वीप, दूसरे द्वीप से
हम सबके बीच एक खिड़की और है
जहाँ तमाम सड़कें,
रेल की पटरियाँ
पानी और हवाओं के रास्ते
सब एक-दूसरे से मिलते हैं।
चिड़ियाँ खींच रही हैं राह
इस वन से—
उस वन के मौन के बीच
शाम इस तट की सुबह
उस तट ले जा रही है
भटकते रीते मेघ-खण्ड
जोड़ रहे हैं सबका आकाश।
समुद्र के नीचे भी प्रवाहित हैं
धाराएँ
एक क्षण और दूसरे क्षण के बीच
कुछ भी न घटने पर
घटित होता है भविष्य
और प्रतिध्वनित हाती हैं
अनगिन गुमनाम यात्राएँ
और अतीत में जड़ फेंकता
इतिहास ठूँठ हो जाता है।
व्यर्थ है उन अटल
ध्रुवताराओं की खोज
जहाँ से फेंके गए
दिशाओं के बर्छे
लहूलुहान कर जाते हैं
उभरते उन क्षितिजों को
जो हममें डूबे हैं।