चप्पल टूटने से पहले ख़रीदी चप्पल
बनियान फटने से पहले नया बनियान
एक नये अभाव के आने से पहले एक नयी ज़रूरत ईजाद करता रहा
लड़ने से पहले अपशब्द सीखे और
हाथ जोड़ने से पहले किया मुट्ठी बांधने का अभ्यास
जाड़े से पहले लकड़ियाँ इकट्ठी कीं
गर्मियों से पहले ले आया चमकती सुराही बाज़ार से
बारिश से पहले मरम्मत करता रहा छत की और
एक नक़्शे पर उँगली फिरा भटकता रहा अपरिचित भूगोल पर
नियति के भरोसे कभी कुछ न छोड़ा
आज पर एक न आया हुआ दिन लादता रहा कि
आए हुए दिन पर आराम से टाँगें फैलाकर घर-गृहस्थी,
देश-दुनिया देख सकूँ
आवाज़ लगाऊँ ज़ोर से आसमान को हहकती हुई चेष्टा से ऊहापोह होकर
हाथ लगाकर झटक दूँ दो चार ग्रह-नक्षत्र और
दरवाज़े तक की चहलक़दमी में लाँघ जाऊँ एकाध आकाशगंगाएँ
नहीं जानता था कि
एक व्यवस्थित जीवन को अव्यवस्था से भरता चला जा रहा था
एक सुसज्जित तैयारी के बाद भी
युद्ध कभी नहीं हुआ
असलहे-औज़ार सब वैसे ही पड़े हैं जैसे अपने निर्दोष जीवन में एक दोष की तरह घसीट लाया था उन्हें
सारे तर्क, वाद और कथ्य घिस गए हैं
जिन्हें जोड़ लिया था कि किसी प्रतिवादी के सामने हल्का न लगूँ
अब इतनी बेज़रूरत से भर लिया है अपना कनस्तर-भर का गात कि आवाज़ लगाता हूँ तो मशीनी खड़खड़ाहट से इतर कुछ बोल नहीं पाता
कोई टोक देता है तो एक भाषा से दूसरी भाषा तक जाने का आलस कोंचता रहता है दिमाग़ की नसों को
फिर किसी नये आलस के लिए नयी अक़्ल, नये दुरूपाय
आग, पहिया, गोला-बारूद सब पहले से ही मौजूद था यहाँ
खोजने की ज़रूरत कुछ न थी
बस एक फ़ौरी कल्पना चाहिए थी
फिर न कोलम्बस दूर था और न जहाज़
किनारे से सच में कटी होती धरती तो नहीं उतरतीं उचाट नावें
इतना तो होता कि सारे नामों के बदले में चौराहे ही घूम आता इस शहर के
लेकिन उतावली जिजीविषा का रोगी मैं—
किसी नामालूम जगह की थाह लेकर
एक हथियाए हुए घर को दुनिया कहता रहा
और एक हथियायी हुई दुनिया को घर!
आदर्श भूषण की कविता 'आदमियत से दूर'