अच्छा लगता है मुझे चाहनाओं की जमीन पर
अपने पांवों के निशान देखना,
इसीलिए सुन्न पथरीले रास्तों से उतर कर
अपने नंगे पाँव कभी-कभी गीली जमीन पर रख देती हूँ
तोड़ती हूँ सीमाएं, इस छोर से उस छोर तक…

हर बार, सोख लेते हैं मेरे पाँव
मिट्टी की खरे सोने जैसी खुशबू,
जो देह के तमस को भेदती
आत्मा के हर पोर में भर जाती है
इंद्रियां सकुचा उठती हैं
थम जाता है सब, चुप से लेकर शोर तक..

कभी पहाड़ियों की ढलान से जाती हुई
किसी पगडंडी को देखना तो ढूंढना वहीं
तमाम निशानों में दबे हुए, मेरे पैरों के निशान
शायद भूल आई हूँ मैं उन्हें
जानबूझ कर तुम्हारे ही लिए,
जो सफर पर हैं आज भी, इस मोड़ से उस मोड़ तक..

कभी एक रोज जब होगी मेरी देह
हर रंग को छोड़, बस इसी मिट्टी के रंग में
धुएं के साथ हवाओं में घुलती
मटमैली सी इक महक तुम तक भी आएगी
सोंधी सी खुशबू भर जाएगी तब देखना
तुम्हारे भी चैतन्य के, हर ओर से हर कोर तक…

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