नोट: यह लेख मूल रूप से हिन्दी अखबार अमर उजाला के ऑनलाइन पोर्टल ‘काव्य’ के लिए लिखा गया था। यहाँ पुनः प्रस्तुत है।

हरिवंशराय बच्चन हिन्दी साहित्य के सबसे अधिक लोकप्रिय कवियों में से एक हैं। जिन व्यक्तियों की रुचि साहित्य या काव्य में न भी रही हो, उन्होंने भी अपने जीवन में कभी न कभी ‘मधुशाला’ की रुबाइयाँ ज़रूर गुनगुनायी होंगी। प्रेम, सौहार्द और मस्ती की कविताओं के ज़रिये हरिवंशराय बच्चन हमेशा से कविता-प्रेमियों को अपनी ओर आकृष्ट करते आए हैं। सीधे और सरल शब्दों में मन के भीतर उतर जाना उन्हें अच्छे से आता है। ‘मधुशाला’, ‘जो बीत गयी सो बात गयी’, ‘अग्निपथ’ और ‘इस पार उस पार’ जैसी कविताएँ आज भी जब किसी मंच पर पढ़ी जाती हैं तो श्रोता मुग्ध हुए बिना नहीं रह पाते। ‘मधुशाला’ आज अपने 68वें संकरण में है और इससे ज़्यादा लोकप्रिय किताब शायद ही हिन्दी काव्य में कोई दूसरी होगी।

हरिवंशराय बच्चन के लेखन की शुरुआत तब हुई थी जब हिन्दी साहित्य का छायावाद युग अपने अंतिम पड़ाव पर था। रूढ़ियों को तोड़ती और एक आंदोलनकारी कविता शैली के स्वर कुछ धीमे पड़ गए थे। कविता कल्पनाओं और प्रतीकों के बाहर झाँकने का प्रयत्न कर रही थी। भाषा अपना परिष्कृत रूप लेकर कुछ सरलता ढूँढ रही थी। छायावादी कवियों की विचारधाराओं में भी परिवर्तन देखे जा सकते थे। ऐसे में जहाँ एक ओर दिनकर राष्ट्रीयता के ध्वजवाहक बने थे, वहीं हरिवंशराय बच्चन अपनी कविताओं में एक सरलता और सहजता लेकर आए, जिसके ज़रिये कविताओं में अपने मन की बात सीधे शब्दों में बड़ी ईमानदारी से रखी जा सके-

आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

जिन भी कवियों ने अपनी कविताओं में सौंदर्य से अधिक महत्त्व भावनाओं को दिया, वह जनता के बीच सहज रूप से ही पसंद किए जाने लगे। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हरिवंशराय बच्चन हैं। यद्यपि मधुशाला प्रतीकों का एक विशाल महल है लेकिन वह महल एक मनुष्य के ह्रदय की भीतरी ज़मीन पर ही खड़ा है, यह मधुशाला की रुबाइयों में साफ़ झलकता है-

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।

अपने जीवन में सैकड़ों कष्ट उठाते हुए कविता की ओर बिना रुके चलते रहना वाला यह कवि हमेशा जीवन में आगे की ओर चलते रहने की प्रेरणा देता है। ‘साथी साथ न देगा दुःख भी’, ‘नीड़ का निर्माण’, ‘है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है’, ‘जो बीत गयी सो बात गयी’.. जैसी कविताएँ जीवन की सारी कठिनाईयों को भुलाकर पाठक के सामने एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। इसके साथ ही बच्चन कभी भी अपने मन की बात या किसी भी विषय में अपना मत रखने से पीछे नहीं हटे, चाहे उनकी सोच सामाजिक ढांचों में फिट होती हो या नहीं। समाज के द्वारा दिखायी गयी संवेदना को औपचारिकता बता देना, समाज में रहने वाले एक आम इंसान से अपेक्षित नहीं है, लेकिन बच्चन ने यह भी किया। इसका कारण यह भी रहा होगा कि उनके लेखन के प्रारम्भिक दौर से ही उन्हें काफी आलोचना झेलनी पड़ी। ऐसी आलोचनाएँ जिनका कोई औचित्य नहीं रहा। छायावाद जैसे युग- जिसमें प्रतीकों और कल्पनाओं का आधिक्य रहा- से निकलकर चले आने वाले आलोचक जब बच्चन की मधुशाला की कविताओं में शराब का महिमा-मंडन ढूँढ लेते हैं तो उस आलोचना का उद्देश्य एकदम स्पष्ट हो जाता है। यह कविताओं की नहीं, धूल से निकलकर जनता के ह्रदय में राज करने वाले केवल उस कवि की आलोचना थी जिसने अपने एक स्वर में हज़ारों-लाखों आवाजों का गुंजन पैदा कर दिया। कितना बेधा गया होगा उस कवि के ह्रदय को, कि वहाँ से इन पंक्तियों ने सृजन पाया-

“एक दिन मैंने लिया था
काल से कुछ श्वास का ऋण,
आज भी उसको चुकाता,
ले रहा वह क्रूर गिन-गिन,

ब्याज में मुझसे उगाहा
है ह्रदय का गान उसने,

किन्तु होने से उऋण अब
शेष केवल और दो दिन,

फिर पडूँगा तान चादर
सर्वथा निश्चिंत होकर
भूलकर जग ने किया किस-
किस तरह अपमान मेरा

पूछता जग, है निराशा से
भरा क्यों गान मेरा?”

इन सब आलोचनाओं के बावजूद, प्रेरणा के साथ-साथ प्रेम भी बच्चन की कविताओं का एक अभिन्न अंग रहा है। लेकिन यह प्रेम केवल एक व्यक्ति विशेष से किया जाने वाला प्रेम नहीं, बल्कि इस सम्पूर्ण जगत को प्रेम का एक पात्र मान लेने वाला प्रेम है। अपने जीवन के सभी कटु अनुभव भूलकर, विसंगतियों और भेदों से ऊपर उठकर, जितना जीवन पाया है उसमें प्रेम की वाणी बोलते चलना ही उनकी कविताओं का सार रहा है। और चूँकि कवि भी पहले एक मनुष्य है तो व्यक्तिगत भावनाओं के उद्गारों का भी अपनी अभिव्यक्ति की ज़मीन खोज लेना सहज ही मालूम पड़ता है।

जिसे सुनाने को अति आतुर
आकुल युग-युग से मेरा उर,
एक गीत अपने सपनों का, आ, तेरी पलकों पर गाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!

जीवन के अंत को सामने देखकर अपने जीवनसाथी से उस पार मिलने का आग्रह हो, या अपने साथी की गोद में चिड़िया के बच्चे सा छिपकर सो जाने का सुकून, एक ऐसी नींद लेने से पहले जिससे कोई नहीं जागता, अपने दिल की सारी बातें कह देने की ललक हो या फिर एक मधुर सपने की आकांक्षा, बच्चन ने कभी फ़िक्र नहीं कि उनकी सुकुमार कविताओं से उनको किस-किस तरह से आँका जा सकता है। उनके ह्रदय ने उन्हें जो पथ दिखाया, बच्चन उस पर कविताओं की लाठी के सहारे अपने जीवन के अंतिम दिनों तक चलते रहे। मानवीय भावनाओं को इतने सूक्ष्म और संवेदनशील तरीके से अपनी कविताओं में उकेरने वाले इस महान कवि को हिन्दी साहित्य हमेशा एक ऋणी ह्रदय के साथ याद करता रहेगा.. ‘जाल समेटा’ से उनकी अन्तिम कविता ‘मौन और शब्द’ का एक अंश-

“एक दिन मैंने
मौन में शब्द को धँसाया था
और एक गहरी पीड़ा,

एक गहरे आनंद में,
सन्निपात-ग्रस्त-सा,
विवश कुछ बोला था;

सुना, मेरा वह बोलना
दुनिया में काव्य कहलाया था।”

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

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