‘पिछले दिनों’ से

कुछ बातें हैं, जो इस देश में हमेशा होती रहती हैं। जैसे कोई विदेशी सत्ताधारी हवाई जहाज़ से उतरता है और हमारी तारीफ़ करता है। फिर वह दिल्ली, जयपुर, आगरा वग़ैरा घूम-लौटकर आता है और फिर हमारी तारीफ़ कर देता है। हमारे विदेशमन्त्री किसी-न-किसी देश में पहुँच जाते हैं और भारत के अच्छे होने का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेते हैं। हम शान्ति चाहते हैं, प्रजातंत्र में भरोसा करते हैं, कमाल की प्रगति कर रहे हैं वग़ैरा। एक समझौता होता है, जिसमें कुछ समझौता हो जाता है। नेहरू के ज़माने से ऐसा कुछ होता रहा है। तब भी नई सरकार थी, अपने क़ाबिल और महान होने के प्रमाणपत्र बटोरते नेहरू-मेनन हर कहीं जब मौक़ा लगा, पहुँच जाते थे। आजकल नई सरकार है। यात्राएँ करने की वही बालोचित उमंग काफ़ी परिमाण में है।

मदद मिल जाती है। यह कम्बख़्त हमेशा मिलती रही है। आत्मनिर्भर होने के चक्कर में हम मदद माँगते फिरते हैं और जो हमें पैरों पर खड़े देखना चाहते हैं, वे सहारा देने में चूकते नहीं।

देश प्रगति करता रहता है। हम शान्ति चाहते रहते हैं। अपने हवाई जहाज़ों की मारक-शक्ति और गति से निरन्तर असंतुष्ट हम शान्ति चाहते रहते हैं। हम शान्ति और शस्त्र की तलाश में भटकते रहते हैं सारी दुनिया में। हमें देश में सदा नई सम्भावना का पता चलता रहता है। जैसे पेट्रोल कहीं मिल सकता है अथवा अमुक बांध बन जाने पर सिंचाई बढ़ने की सम्भावना है अथवा तीन वर्षों में हम फ़लाँ चीज़ में न सिर्फ़ आत्मनिर्भर हो जाएँगे, वरन निर्यात भी करने लगेंगे। लौंग से एटम-बम तक सम्भावनाएँ व्यापक हैं। तेल की बूँद से नदी की धार तक हमें स्थिति को नियंत्रित करना है।

हर सरकार साल में चार बार यह कहती है कि हरिजन, आदिवासी तथा अन्य पिछड़े वर्गों की समस्याओं को हम प्राथमिकता देंगे। बरसों से यह बात कही जाती रही है। वादों का श्रीगणेश हरिजनों से होता है और निर्णय और क्रियाओं की इतिश्री बनियों पर होती है। गाँवों में ख़ुशहाली लाने की बातें तीस साल से क़रीब-क़रीब फ़ाइनल हैं और अब भी पक्की हो रही हैं। बेकारी दूर करने की तरफ़ सबका ध्यान बगुले की तरह लगा है। ठोस क़दम बड़ी हद तक उठाए जा रहे हैं। बहुत ठोस योजना होने के कारण ही शायद क़दम भारी पड़ रहा है और उठ नहीं पाता है। पोले क़दम उठाना ज़्यादा ठीक होता। यों शिकायत आम है कि ठोस क़दम पोले हैं। फिर पता नहीं क्या बात है। कृषि उद्योग का विकास, बेकारी का निवारण होता रहता है।

स्थिति में सुधार करने के लिए शासन कटिबद्ध होता है। कटि तो बद्ध हो जाती है, स्थिति वही रहती है। कटि को बद्ध करने के लिए बजट में प्रावधान रखा जाता है, विभाग खोले जाते हैं, अफ़सर नियुक्त होते हैं। काफ़ी ख़र्च के बाद कटि बद्ध हो जाती है। लोग भी दाद देते हैं, वाह! क्या कटि है और कमाल की बद्ध है। अब शासन को फ़िक्र होती है कि कहीं कटि ढीली न हो जाए। बजट में और प्रावधान बढ़ाया जाता है ताकि कटि दिन-प्रतिदिन अधिक बद्ध हो। कटि ठीक हो जाती है, स्थितियाँ वही रहती हैं, जिसके लिए कटि को बद्ध किया जाता है।

शान्ति बनी रहती है, धुरा चल जाता है। विचार होता रहता है, गोली चल जाती है। दशा सुधरती रहती है, बलात्कार हो जाते हैं। कारख़ाने लाभ में चलते हैं, मज़दूर वेतन के लिए हड़ताल करते रहते हैं। सरकार व्यापारियों को धमकी देती रहती है, व्यापारी पार्टियों को चन्दा देते रहते हैं। जनता कांग्रेस को गाली देती है, कांग्रेस जनता पार्टी को और लोग दोनों की गालियाँ देते रहते हैं। योजना आयोग में कुछ-न-कुछ परिवर्तन चलते रहते हैं, या तो आयोग बदलता रहता है या योजनाएँ बदलती रहती हैं। प्राथमिकताएँ निश्चित की जाती हैं मगर वे काम ज़रूर नहीं हो पाते।

अफ़सर भ्रष्ट होते हैं, सरकार उनकी मदद से भ्रष्टाचार दूर करने का प्रयत्न करती रहती है। वह और अफ़सरों को नियुक्त करती है, उन्हें प्रमोशन देती रहती है। कुछ लोग शिकायतें करते रहते हैं, कुछ रिश्वत देते रहते हैं। फिर शिकायत करनेवालों को कमीशन मिलने लगता है। सरकार कमीशन बिठाती है, कमीशन रिपोर्ट देता है, रिपोर्ट पर विचार होता है, तब तक सरकार बदल जाती है।

छब्बीस जनवरी हो जाती है, पन्द्रह अगस्त हो जाता है, दो अक्तूबर हो जाता है। सलामी हो जाती है, झण्डा लग जाता है, चरखा चल जाता है। बाढ़ आती है, सूखा पड़ जाता है, वायु दुर्घटना हो जाती है, नाव उलट जाती है, मकान गिर जाते हैं। सरकार को दुःख होता है, अफ़सोस होता है, चिन्ता होती है, सहानुभूति रहती है। लोग मरते रहते हैं, मन्त्री शपथ लेते रहते हैं। कुछ बातें हैं जो देश में होती रहती हैं। भाषण, अपराध, वादे, मर्डर, उद्‌घाटन, तालाबन्दी, यात्रा, पराजय। चलता रहता है। किसी ओर से देश अच्छा लगता है, किसी ओर से बुरा लगता है। लगता है, लगा करे। किसी को इससे क्या कि तुम्हें क्या लगता है जब तक तुम लगते न हो किसी के।

शरद जोशी का व्यंग्य 'अतिथि तुम कब जाओगे'

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शरद जोशी
शरद जोशी (१९३१-१९९१) हिन्दी जगत के प्रमुख वयंग्यकार थे। आरम्भ में कुछ कहानियाँ लिखीं, फिर पूरी तरह व्यंग्य-लेखन ही करने लगे। इन्होंने व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य कॉलम के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे। हिन्दी व्यंग्य को प्रतिष्ठा दिलाने प्रमुख व्यंग्यकारों में शरद जोशी भी एक हैं। इनकी रचनाओं में समाज में पाई जाने वाली सभी विसंगतियों का बेबाक चित्रण मिलता है।