कॉरपोरेट के पिंजरे में फंसे एक साहित्य प्रेमी के आगे अगर एक किताब रख दी जाए जिसका नाम हो “कॉरपोरेट कबूतर”, तो उस किताब की तरफ आकर्षण स्वाभाविक ही है. पटना में रहने वाले शान रहमान द्वारा लिखी गयी यह किताब बहुत जल्द बाजार में उपलब्ध होने वाली है और इससे पहले हमने सोचा कि शान से बात की जाए.

शान रांची, झारखण्ड के रहने वाले हैं और दिल्ली के NIFT और IIT में पढ़ाई कर चुके हैं. फिलहाल पटना की एक कंपनी में काम करते हुए अपने लेखन-प्रेम को ज़िंदा रखे हुए हैं. बहुत ही ज़िंदादिली से बात भी करते हैं. उनकी आने वाली किताब और साहित्य से जुड़ाव पर शान से की गयी बातचीत को आपके सामने रख रही हूँ.

शिवा: सबसे पहले अपने लेखन की शुरुआत के बारे में कुछ बताइए.
शान: लिखने का शौक बहुत पहले से था. शौकिया तौर पर कविताएं लिखा करता था. दिल्ली में पढ़ते हुए छुट्टियों में जब घर नहीं जा पाता तो कविताओं के साथ ही समय गुज़रता था. उसे ही लेखन की शुरुआत माना जा सकता है.

शिवा: क्या “कॉरपोरेट कबूतर” में भी हमें कविताएं पढ़ने को मिलेंगी या यह किसी और विधा में लिखी गयी है?
शान: नहीं नहीं. कॉरपोरेट कबूतर एक कहानियों का संग्रह है. छोटी-छोटी कहानियां हैं इसके अंदर.

शिवा: नाम से प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं नौकरियों में फंसे लोगों की जद्दोजहद की बात करती होगी यह किताब. क्या कुछ ऐसी ही उम्मीद रखनी चाहिए पाठक को?
शान: ‘कॉरपोरेट कबूतर’ नाम से एक कहानी है किताब के अंदर और उसी पर किताब का नाम रखा गया है. बात तो ज़रूर करती है कॉरपोरेट की दुनिया की मगर और भी बहुत सी छोटी-छोटी कहानियाँ हैं. कोई कहानी एक छोटे बच्चे के दृष्टिकोण से है, कोई पूरे दिन घर के काम में लगी रहने वाली औरत के नज़रिये से तो कोई बुढ़ापे का अकेलापन झेलते व्यक्ति के नज़रिये से. अलग-अलग मिज़ाज की कहानियाँ हैं.

corporate kabootarशिवा: जी. एक विषय पर अक्सर ही चर्चा होती नज़र आती है कि किस तरह के लेखन को साहित्य कहा जाए और किसको साहित्य के परिधि से बाहर रखा जाए. यदि मैं आपसे पूछूं कि आपके लिए साहित्य क्या है तो आपका क्या जवाब होगा?
शान: बचपन में एक श्लोक पढ़ा था-

“साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्॥”

साहित्य, संगीत, कला से विहीन इंसान पशु के सामान है. तो मैं ये समझता हूँ कि मुझे अपनी नौकरी में ढंग से पढ़ने का समय नहीं मिल पाता, फिर भी मैंने राह चलते कुछ अच्छा पढ़ा, उस पर विचार किया, और कुछ लिख लिया तो मैं साहित्य में योगदान तो दे रहा हूँ. हाँ मगर लोगों के सामने जब उसी चीज़ को प्रस्तुत किया जाए तो उसका एक अच्छा लिबास होना ज़रूरी है. भाषा की भी बात करूँ तो वो एक लहज़ा है जिसमें कुछ नया जुड़ता-घटता रहता है मगर वही है कि आप मोडर्नाइज़ेशन के लिफ़ाफ़े में डाल कर कुछ भी तो नहीं परोस सकते. अगर मेरी बात करें तो मेरी लिखाई फितरतन हिंदुस्तानी है.

शिवा: शान, आपने अभी कहा कि बहुत ज़्यादा समय नहीं मिल पाता पढ़ने का. चूंकि मैं भी समय की किल्लत से जूझती रहती हूँ तो यह ज़रूर जानना चाहूंगी कि आप जॉब के साथ लिखना-पढ़ना कैसे जारी रख पाते हैं?
शान: हा हा! देखिये शिवा बात इतनी सी है कि लिखना पढ़ना मुझे कभी एक काम नहीं लगा. हैं तो सभी के पास चौबीस घंटे ही, पर शौक हो तो आप समय निकाल ही लेते हैं. चूंकि मैं यह काम ख़ुशी से करता हूँ, समय निकल ही जाता है.

शिवा: चलिए समय की दिक्कत तो हल हुई, अब आप हमें यह बताएं कि एक नये लेखक के लिए कितना मुश्किल या आसान है एक किताब बाजार में ला पाना, और उसके लिए पाठक बना पाना.
शान: मुझे ऐसा लगता है कि जो स्थापित लेखक-कवि हैं, उन पर पब्लिशर का ध्यान थोड़ा ज़्यादा रहता है. पब्लिशिंग आखिर एक बिज़नेस ही है. तो कोई नए लेखक, या नयी तरह से लिखने वाले लेखक को थोड़ा संघर्ष तो करना ही पड़ता है. पब्लिशिंग में फिर सब कुछ काला-सफ़ेद भी नहीं है. हर तरह के लोग हैं. सब अपनी तरह से काम तो करेंगे ही. आपको अपने काम पर भरोसा करना ज़रूरी है और यह तय करना है कि आप पाठक को ध्यान में रखकर अपनी लेखनी से किस हद तक कोम्प्रोमाईज़ कर सकते हैं. अलग अलग विचार, सुझाव लेने में कोई बुराई नहीं मगर उससे आपको कितना प्रभावित होना है वो आप खुद तय करेंगे.

शिवा: आपका ऐसा कोई विचार है कि आगे पूरी तरह लेखन में समर्पित हुआ जाए?
शान: देखिये सच्चाई से कहूँ तो साहित्य के क्षेत्र में अपनी पहचान बना पाना, और इतना कमा पाना कि आप एक परिवार भी चला सकें, यह थोड़ा मुश्किल है. बहुत से लेखक यह हिम्मत कर जाते हैं कि अपना पूरा समय लेखन को दें, मगर क्योंकि मेरे पास एक परिवार की ज़िम्मेदारी भी है, तो फिलहाल तो ऐसा नहीं सोच सकता.

शिवा: आपको लिखने का समय मिलता रहे यही आशा रहेगी. एक और बात सुनने में आती है शान. अक्सर लोग ऐसा कहा करते हैं कि आप तो फलां-फलां यूनिवर्सिटी से पढ़कर आये हैं, फिर आपका हिंदी में रुझान कैसे हो गया. हालाँकि जिसकी मातृ भाषा हिंदी हो, उसके लिए यह एक बहुत ही गलत सवाल है पर क्या इससे आपको यह लगता है कि लोगों के मन में अन्य किसी फील्ड से हिन्दी लेखन में आने वालों को लेकर एक शंका है? क्या उतनी सहजता से स्वीकार नहीं किया जा रहा है कॉरपोरेट से आए एक हिंदी लेखक को?
शान: इंग्लिश के पाठक फिलहाल ज़्यादा हैं इसमें कोई शक नहीं. हालाँकि मैंने इस बारे में ज़्यादा सोचा नहीं. मुझे हिंदी में लिखना ज़्यादा सहज लगा तो मैंने हिंदी में लिखा. अंग्रेजी में ऐसा लगता तो अंग्रेजी लिख लेता. पाठकों को भी यह नहीं सोचना चाहिए. कोई स्टेटस बनाने की इच्छा से न पढ़कर, जो पढ़ने में आप सहज हैं, वो पढ़ लें.

शिवा: अंत में मुझे यह और बताएं कि नये-पुराने लेखक-कवियों में आपका पसंदीदा कौन है? और अगर आपको एक किताब पढ़ने का सुझाव देना हो, तो वो कौन सी किताब होगी?
शान: नये लेखकों में तो मुझे किशोर चौधरी जी का राइटिंग स्टाइल बेहद पसंद है. और बाकी मैं गुलज़ार साहब का बहुत बड़ा फैन हूँ. उनकी सभी किताबें हैं मेरे पास. गुलज़ार साहब परतों में बात करते हैं और हर पढ़ने वाला अपने अपने हिसाब से कुछ कुछ चुन के उन परतों से ले जा सकता है. उन्हीं की एक किताब है ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ जो मुझे लगता है सबको पढ़नी चाहिए.

शान की किताब ‘कॉरपोरेट कबूतर’ हिन्द युग्म से प्रकाशित हुई है और आने वाली 6 तारीख यानि 6 दिसम्बर 2017 को रिलीज़ हो रही है. फिलहाल इसे Amazon के इस लिंक से प्री-आर्डर किया जा सकता है.

उम्मीद हैं आप सभी को शान रहमान की कहानियाँ पसंद आएँगी. पढ़ने के बाद हमें लिखना न भूलें कि आपको यह किताब कैसी लगी.

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