ऑटो में हम चारों ठसे थे और चुप थे और मैं बोर हो रहा था तो मैंने शयाना को यूँही ज़रा आगे की तरफ सरका दिया। यह करना था कि शयाना भड़क गयी- “मैंने इससे बुरा आदमी आज तक नहीं देखा!”

“एंड आई विल मेक श्योर देखोगी भी नहीं!”

रॉनी और प्रियंवदा दोनों साथ में हँस पड़े। लेकिन प्रियंवदा उस समय रॉनी के साथ बैठने के बावजूद, ऐसे दिखा रही थी जैसे रॉनी वहाँ हो ही नहीं। दरअसल प्रियंवदा का अगले दिन का लखनऊ वापसी का टिकट होना था जो प्रियंवदा के मुताबिक रॉनी की वजह से नहीं हो पाया; पहली बार दोनों का लवी-डवी से हटकर एक खट्टा-मीठा मिजाज़ देखने को मिला।

यही मिजाज़ मेरे और शयाना के बीच न आ जाए, इसलिए मैंने परिस्थिति भाँपते हुए, शयाना की पीठ पर हाथ रखकर जल्दी से यह कह देना ज़रूरी समझा- “मैं तुम्हारे लिए यह दुनिया इतनी खूबसूरत बना दूँगा कि तुम मुझ जैसे अच्छे इंसान से थोड़ा कम भी अच्छा इंसान (यानी मुझसे बुरा इंसान) कभी न देखो!”

एक बार फिर सब हँस पड़े। इस बार तीनों मेरी बात पर न हँसकर मुझ पर ही हँस रहे थे लेकिन मुझे इस बात का सुकून था कि बात टल गयी थी।

ऑटो शाहपुर जाट की एंट्री पर रुका और हम उतरे तो पता भी नहीं चला कब रॉनी और मैं ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ मोड में चलने लगे। रॉनी की बाँह मेरे कंधे पर थी और मेरा हाथ उसकी कमर में। पीछे चलते शयाना और प्रियंवदा हँस-हँस कर कुछ तो हमारे बारे में कह रहे थे, ऐसा कान में पड़ती गुनगुन से महसूस हो रहा था। मैं रॉनी से पूछने ही वाला था, उससे पहले ही रॉनी बोल पड़ा – “यार कितना पक गए थे ऑटो वाले भैया हमसे, उनके चेहरे पर दिख रहा था!!”

“तो दस रूपये एक्स्ट्रा भी तो लिए हैं.. पचास लगते हैं यहाँ तक के, लिए साठ हैं!”

“मतलब पकाएँ भी हम और दस रूपये भी हम दें? वाह!!”

इसे सहन करना मेरी सामर्थ्य के बाहर था तो मैंने धीरे से रॉनी की कमर से अपना हाथ निकाला और पीछे शयाना के पास जाकर उसके साथ चलने लगा।

रॉनी अब अकेला था तो साथ ढूँढने के लिए पीछे मुड़कर देखने लगा। प्रियंवदा के चेहरे पर उसे लखनऊ का टिकट दिखा और शयाना और मेरे चेहरे पर हँसी रोकने की कोशिश!

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

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