‘Madhyamvargiya Khwab’, a poem by Supriya Mishra

मिडिल क्लास का आदमी,
दफ़्तर जाते हुए निहारता है
रस्ते के दोनों तरफ़ उगे ऊँचे मकानों को।
चुराता है किसी से रंग,
किसी से दरवाज़े
किसी से खिड़कियाँ,
तो किसी के बरामदे का डिजाइन।
लौटकर वो जोड़ता है
दिन भर की चोरी
और फिर नापता है
दिन की कमाई के साथ।
चोरी का माल हमेशा महँगा रहता है।
अर्थराइटिस से पीड़ित
उसकी औरत बेलती है रोटियाँ
और सेंकती है ख़्वाब
एक झरोखेदार, बड़े रसोई घर के।
वो सोचते हैं घर की खिड़की
पूरब में नहीं खुलनी चाहिए।
मकान के किराए के बोझ तले
जब घुटने लगता है दम
तो साँसों की तलाश में भागता आदमी
तोड़ बैठता है ताक़ पर रखी
गुल्लक।

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सुप्रिया मिश्रा
हिन्दी में कविताएं लिखती हूँ। दिल से एक कलाकार हूँ, साहित्य और कला के क्षेत्र में नया सीखने और जानने की जागरूकता बनाए हुए हूँ।

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