मुट्ठी से फिसलने पर तुमसे मैंने पूछा
रेत! नकारात्मक क्यूँ है?
बँधना कभी नहीं सीखा
ढली नहीं कभी साँचे में
अगढ़, निर्भय, बावली
रेत स्वतंत्र है।
रेत स्पंदरहित,
सम्वेदना से परे, निर्विकार।
पवन की सहचरी बन
डोली है हर प्रात-रात
निर्बाध रही पूरा जीवन
सम्बन्ध सीमा से मुक्त।
हँस पड़ी तत्क्षण
और कहती है –
रेत हूँ मैं
जल ने त्याग दिया मुझको
ना किया शोक वायु संग बह चली
अन्तर से उपजे लोयस में कली खिली,
मातृत्व से कहाँ मैं वंचित
कहीं न कहीं है हरीतिमा संचित;
पर
मत बाँधो मुट्ठी में मुझको
साँचे में ढल जाने को मत करो विवश
क्योंकि मैं मुक्ता हूँ
सँयुक्ता नहीं, युक्ता हूँ
भरा मुक्ति त्वरा से मेरा मन
उड़ने का आदी हो चला है तन
मेरी आज़ादी का आशय केवल त्रास नहीं
है ज्ञात मेरे जीवन में मधुमास नहीं।
मैं रेत हूँ।