मत भूलना कि
हर झूठ एक सच के सम्मुख निर्लज्ज प्रहसन है
हर सच एक झूठ का न्यायिक तुष्टिकरण
तुम प्रकाश की अनुपस्थिति का
एक टुकड़ा अंधकार
अपनी आँखों पर बाँधकर
नेत्रहीन होने का ढोंग करते हो
दुनिया के सारे रंग मानुषी हैं
सारे चेहरे नक़ली हैं
सारी शराफ़तें चालबाज़ियाँ हैं
तमाम शह और मातों में उलझे हुए तुम
उतने ही रंग देखते हो और बनाते हो
जितनी तुम्हारी आँखों का अंधबिंदु
तुम्हें आँखों की दुनिया के
पीछे का खड़ा हिस्सा दिखाता है
तुम उतने ही चेहरे देखते हो
जितने तुम्हारे सामने बिछाए जाते हैं
तुम उतनी ही शराफ़त पालते हो
जितनी को खिलाने के लिए तुम्हारे पास चारा है
मत भूलना कि
हर सुख किसी दुःख के पुनरागमन की प्रतीक्षा है
हर दुःख किसी सुख पर विस्मायादिबोधक चिह्न
तुम आवाज़ों की भीड़ में
मौन का एक जलता हिस्सा
अपने मुँह में डालकर
मूक होने का ढोंग करते हो
दुनिया के सारे दुःख
एक विसर्ग का बोझ ढोते-ढोते धराशायी हो चुके हैं
सारे नेत्रों का जल अपनी दिशा बदलकर
अंतस में बहता हुआ
उर तक पहुँचकर हिमखण्ड बन चुका है
सारे व्यंजन स्वरों से स्वातंत्र्य
एक मौन स्वीकार चुके हैं
तुम उतनी ही पीड़ा ढोते हो
जितना वज़न रीढ़ उठा सके
तुम उतना ही हिम पिघला सकते हो
जितनी तुम्हारे शरीर की ऊष्मा है
तुम उतना ही बोल सकते हो
जितनी विकसित तुम्हारी भाषा है
मत भूलना कि
तुम्हारे हाथों में जो अन्न से भरा हुआ पात्र है
वह किसी की बोयी हुई पीड़ा पर
उपजा हुआ सुख है।
आदर्श भूषण की कविता 'आदमियत से दूर'