‘Maut’, a poem by Shahbaz Rizvi

कितनी उम्र लगती है
मौत तक पहुँचने में
कोशिशें तो करता हूँ
मौत तक पहुँचने की

ज़ीने से उतरते वक़्त
आँख बन्द रखता हूँ
शायद पैर फिसले और
सर पे गहरी चोट आये
उस जगह लगे जिससे
मौत मुमकिन हो जाये

सर दीवार में मारो
तो ख़ून-वून बहते हैं
मौत क्यों नहीं आती
फोड़ कर बैठा हूँ
आज फिर से सर अपना
बदनसीब हूँ शायद
उस जगह नहीं लगता
जिस जगह की चोटों से
मौत सब को आती है

ख़ूब की दुआएँ पर
दिल की कौन सुनता है
ज़िन्दगी ना दी जिसने
मौत ख़ाक देवेगा!

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