स्त्रियों की देह पर
कविता से प्रेम,
कविता की देह पर
स्त्रियों से प्रेम,
घृणा के ऐसे औज़ार
कहाँ से लाते हो तुम!
कभी सोचा है
यातनाओं के शिविर में
एक स्त्री को
नींद कैसे आती होगी
अनगिन कराहों से भरे
घुप्प अँधेरे में
जाँघों की कोमलता
कैसे खोज लेते हो तुम!
जिनके वजूद में तुम्हारी देह
ख़रगोश की तरह फुदकती हुई छुप सकती है
जिनकी आत्मीयता में तुम
जीमते हो छप्पन व्यञ्जन
वह किसी शरणार्थी की तरह भयग्रस्त
एक-एक कौर क्यों उठाती है?
जिनकी कोख के पार्श्व में रेंगती रहती हैं
न जाने कितने युद्धों की परिणति
तुम्हारे नैनों की निर्ममता
और उनकी आँखों के दुःस्वप्न
जिनका नहीं छोड़ते कभी पीछा
उनको कैसे कर देते हो तुम
दुःख की सफ़ेद चीलों के हवाले?
अपने पाषाण जीवन की स्मारिकाओं पर
क्या यही मृत्युबोध अंकित करोगे तुम!
उस दिन क्या होगा
जब वो ले आयेंगी निर्वस्त्र ही
तुम्हारी देहात्मा को चौराहे पर
ठीक उसी तरह, जिस तरह
उन्हें भोगते रहे हो तुम!