जीवन नहीं देखता
रंग-रूप, जात-पात
धरती के हृदय से
कई फूल खिलते हैं!

कुछ मुरझाए फूलों को भी
धरती दाना-पानी देती है,
हवा नहीं रुकती किसी पर
आक्रोशित होकर,
वर्षा होती ही है
लड़ के मर रहे लोगों के
पापों को धोने,
सुबह होती है, अपनी
चहचहाट साथ लाती है,
घने फलदार वृक्ष
ढोते हैं बोझ
अपनी जड़ों से उठकर
पेट भरते ही हैं,
अपनी चोटिल आहों से
नहीं गाते कोई रुदन गीत

ईश्वर के झोले में सबकुछ
है
समय के साथ बदलती ऋतुओं
को भी तृप्त करती उसकी सहस्त्र
भुजाएँ
इंसानों की आवाजाही को चार नहीं
हज़ार कांधे देती हैं

पर ईश्वर के गर्भ में तीसरा
नेत्र भी है
रोते बच्चों के माथे पर
शिकन
बूढ़े शरीर के पैरों के छाले
धरती के ताप को बढ़ा देते है
मृत्यु नहीं देखती प्रायश्चित

जीवन मुखाग्नि देता है
तब मृत्यु होती है

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सृजन सृयश
मैंने ईश्वर से तुम्हारे साथ ज़िन्दगी नहीं अपने कब्र में तुम्हारे नाम की मिट्टी मांगी है सृजन

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