‘आदमी की निगाह में औरत’ से

दलितों के साथ स्त्रियों की दुर्दशा भी गाँधीजी का बहुत बड़ा सरोकार रही है। वह उनके सामाजिक सर्वोदय का ज़रूरी हिस्सा था। उनका संघर्ष समग्र था। एक तरफ़ वे स्वराज की बात करते थे, तो साथ ही सामाजिक बुराइयों, पिछड़ेपन, अन्याय को दूर करने की चेतना पैदा करना चाहते थे, ताकि देश उस ‘स्वाधीनता’ को सम्भालने लायक़ बन सके। चिन्ता, प्रतिज्ञा और प्रयास तीनों ही उनकी गहरी समझ और दूर-दृष्टि के प्रमाण हैं, मगर जब ‘स्वराज’ मिला तो उनका चाहा कुछ भी नहीं हुआ। माला हम गाँधी के नाम की कितनी ही जपें और ‘हाय अगर यह देश गाँधी की बतायी राह पर चला होता तो आज हमें यह दुर्दिन न देखने होते’ जैसे मर्सिये पढ़ते हुए गाँधी नाम के ताज़िए के सामने कितनी ही छातियाँ कूटें, मगर यह सच है कि इतिहास ने गाँधी को एक ‘विराट-फुस्स’ की नियति दे दी है। हाँ, हर भक्त के भीतर यह आस्था बनी रहनी चाहिए कि एक दिन फिर कृष्णावतार होगा (तदात्मानं सृजाम्यहम्), फिर क्राईस्ट पुनर्जीवित होंगे, फिर आख़िरी पैगम्बर आएँगे और फिर एक दिन सारा देश और समस्त विश्व गाँधी को पहचानेगा, उनके रास्ते पर चलेगा…।

सवाल कभी-कभी सिर उठाता है कि सारी सदाशयता के बावजूद गाँधी दलितों की समस्याओं और यातनाओं के उन आयामों को क्यों आत्मसात नहीं कर पाए जिन्हें ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर ने भुक्तभोगी होने के नाते वाणी दी। शायद स्त्रियों के बारे में भी उनकी एप्रोच उसी दुविधा (एम्बिवलेन्स) की शिकार रही, जिससे मृदुला गर्ग जैसी तेजस्वी महिला आज तक ग्रस्त और पुरानी महादेवी वर्मा प्रायः मुक्त हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि दलित और अस्पृश्य एक अलग और दूर का वर्ग था, स्त्रियों की तरह जीवन घर और समाज में गुँथा नहीं था। किसी अर्थ में वह हम स्वयं थे। वीरभारत तलवार ने कांग्रेस (जो तब गाँधीजी के आदर्शों से ही प्रतिबद्ध थी) के इस अन्तर्विरोध को इन शब्दों में रखा है, “स्वराज्य के राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ स्त्रियों का सवाल उसी तरह टकरा रहा था, जिस तरह किसानों, मज़दूरों या अछूतों का सवाल टकरा रहा था। जो ज़मींदार और उनके वकील राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता बनकर अपने लिए अधिकारों की माँग कर रहे थे, वे ख़ुद किसानों को किसी तरह के अधिकार देने को तैयार नहीं थे। जो ब्राह्मणवादी नेता अंग्रेज़ों से स्वाधीनता चाहते थे, उन्होंने समाज के करोड़ों लोगों को अछूत कहकर हर तरह से पराधीन बना रखा था। यही अन्तर्विरोध राष्ट्रीय आन्दोलन के पुरुष नेताओं और स्त्री-समुदाय के बीच मौजूद था। इस पर तीखा व्यंग्य करते हुए उमा नेहरू ने (स्त्री-दर्पण, मई 1918) राष्ट्रवादी पुरुषों से पूछा—”केवल राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के खो जाने ने तुम्हें कैसा मलिन, कैसा व्याकुल, कैसा दुखित बना दिया है? फिर स्वयं सोचो, जिसके शरीर की, जिसकी आत्मा की, जिसके हृदय की सारी स्वतन्त्रता लुट गई हो, उसका हार्दिक भाव कैसा हो सकता है?” (राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य : 141)

स्वयं गाँधीजी स्त्रियों में शिक्षा, सामाजिक चेतना, साहस इत्यादि सभी चाहते थे लेकिन मूलतः इस सवाल पर भी उनका रवैया समझौतावादी ही था, जैसे वे बाल-विवाह के विरोधी थे लेकिन विधवा-विवाह के पक्ष में नहीं थे। स्त्रियाँ घर से बाहर सामाजिक-राजनैतिक आन्दोलन में हिस्सा लें, पिकेटिंग करें यह तो उन्हें पसन्द था लेकिन आर्थिक रूप से स्वनिर्भर हों, यह उनके गले नहीं उतर रहा था। उन्होंने स्त्रियों के अधिकारों का उसी हद तक समर्थन किया, जहाँ तक पुरुष वर्चस्व पर आँच न आए। ज़ाहिर है गाँधीजी की जड़ें जिस बुर्जुवा समाज में थीं, अपनी सारी उदारता और सदाशयता के बावजूद उसकी व्यवस्था को वे बहुत तोड़ नहीं सकते थे। मज़दूरों, खेतिहरों, दलितों और स्त्रियों के अधिकारों की बात वे उसी सीमा तक उठा सकते थे जहाँ तक अपने सहयोगी वर्ग को तैयार किया जा सके। यह अन्तर्विरोध उन्नीसवीं सदी के समाजवेत्ताओं में तो और भी अधिक तीव्रता से उजागर है : जो राजाराम मोहनराय सती बाल-विवाह के मसले पर सबसे अधिक मुखर थे, सुनते हैं वे स्वयं ही विधवाओं के प्रश्न पर दयनीय रूप से रूढ़िवादी थे—”अगर हमें चमड़े के जूते पहनने हैं तो गौ-हत्या की तरफ़ से आँखें मूँद लेनी होंगी, उसी तरह अगर हमें हिन्दू समाज को बिखरने से बचाना है तो विधवाओं के सवाल को न उठाना ही बेहतर है…”

इसी आशय का एक पत्र उद्धृत किया है प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. सुधीर चन्द्र ने, ‘पुनर्जागरण युग के तीन उपन्यासकार’ नाम के शोध-निबन्ध में… बंकिम तो बाक़ायदा बहु-विवाह और सती के समर्थक तथा विधवा-विवाह के विरोधी थे।

कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि वे क्या मनोवैज्ञानिक या सामाजिक कारण रहे हैं कि पितृसत्ता स्थापित होते ही पुरुष ने सब कहीं स्त्री को कुचला है। दलितों को प्रायः शस्त्र से, स्त्रियों को शास्त्र से… अर्धनारीश्वर की पूजा करनेवाला क्यों स्त्री को हत्या और आत्महत्या के बीच जीने को मजबूर करता गया? जिसे माँ-बेटी-बहन-प्रिया कहकर गले लगाता है, उसे ही तथाकथित शास्त्र-पोषित-सामाजिक मर्यादाओं या विश्वासों के नाम पर नृशंस होकर मार डालता है—कभी उसके पैदा होते ही (आजकल तो भ्रूण रूप में भी), तो कभी वय प्राप्त करने पर…

सबसे ज़्यादा दिल दहला देनेवाली बात तो यह कि उसने इस स्त्री-वध-अनुष्ठान में ख़ुद स्त्री को अपना सहयोगी बना लिया है। मानसिक अनुकूलन (कंडीशनिंग) की हद तो यहाँ तक कि स्त्री स्वयं, बिना पुरुष की उपस्थिति के, स्वेच्छा से अपनी हत्या के इस अनुष्ठान को सम्पन्न करती है और उसे कोई अपराध-बोध या पाप की अनुभूति नहीं होती। अपनी ही प्रजाति को इस तरह मिटाने में जुटी स्त्री क्या सचमुच कभी नहीं सोचती कि वह ऐसी दक्षता से किसकी इच्छाओं या कुंठाओं को सरअंजाम दे रही है? तो क्या अपने अन्तर्तम और अवचेतन में पुरुष स्त्री से भयभीत है? क्या वह उसे अपने से ज़्यादा शक्तिशाली मानता है? भारतीय दर्शन ने उसे संस्कार दिए हैं कि प्रकृति पुरुष के बिना जड़ है, मगर कहीं वह शायद यह भी मानता है कि स्त्री प्रकृति है—मानव प्रजाति की निरन्तरता बनाए रखने का माध्यम है, तब क्या प्रजनन और संरक्षण में अपना सिर्फ़ प्राकृतिक उपयोग किए जाने का प्रतिशोध लेता है पुरुष? स्त्री के मुक़ाबले अपनी यौन-अक्षमता की कचोट क्या उसे नृशंस या प्रतिहिंस्र बनाती चली जाती है? ‘आदमी की निगाह में औरत’ नाम के लेख में मैंने विस्तार से इसी पितृसत्तात्मक सामन्ती सोच को समझने की कोशिश की है।

परिवार नामक संस्था द्वारा पुरुष-निरंकुशता की क़िलेबन्दी न की गई होती तो शायद पुरुष न बालिका को बर्दाश्त करता, न बुढ़िया को। दोनों ही उसके लिए बोझ हैं। उसका प्राकृतिक जुड़ाव युवती के साथ है—वह भी अपनी एकमात्र मिल्कियत बनाकर। पशु-पक्षियों में भी कुछेक अपवादों को छोड़कर परिवार या शिशु-पोषण मादा की ज़िम्मेदारी है—नर एक अलग और बाहरी प्राणी है। हाँ, सुरक्षा और संरक्षण उसे झुंडों और क़बीलों में बाँधे रखता है।

परिवार स्त्री के पक्ष में समाज द्वारा पुरुष की नाकेबन्दी है, उसकी स्वच्छन्दता को रचनात्मक दिशा देने की घेराबन्दी है, संन्यासी और भगोड़ा बनकर ही वह उससे मुक्त हो पाता है। जब तक नहीं भाग पाता, तब तक अपने बँधे होने की सज़ा औरत को देता रहता है। यहाँ तक कि अपने मरने के बाद भी उसके शारीरिक या आधिभौतिक (मैटाफ़िज़ीकल) वध का प्रबन्ध कर जाता है… स्त्री को हज़ारों सालों से अबला, असहाय, अधूरी और अपने ऊपर निर्भर बनाकर रखना, परिवार के भीतर ही अपनी निरंकुश स्वच्छन्दता को बरक़रार रखने की रणनीति है… उसने सारे सामाजिक क़ानूनों को कुछ इस तरह गढ़ा है कि पुरुष-वर्चस्व को कहीं कोई चुनौती या ख़तरा नहीं है। पहले स्मृतियाँ और नीतिशास्त्र खुलकर जिस बात को कहते थे, आज क़ानून उसी यथास्थिति को बारीक और पेचीदा ढंग से कहता है कि स्त्री के पास सिर्फ़ कच्चे पत्ते हैं, सारे ट्रम्प और तुरुप आज भी पुरुष के क़ब्ज़े में हैं। खेल लो, कितनी देर खेलती हो…।

पिछले दो दिनों (6 और 8 जून) से मैं दूरदर्शन पर दो प्रोग्राम देख रहा हूँ : ‘फ़ेमिना’ पत्रिका द्वारा ‘मिस इंडिया’ को और जे. के. टायर द्वारा ‘मिस यूनिवर्स’ का चुनाव। अद्भुत ऐन्द्रजालिक दृश्य, भव्य चकाचौंधवाले सेट्स, रोशनियाँ, जादुई स्टेज-सेटिंग और थोक में सुन्दरियों के झुंड, हँसती खिलखिलाती जवानियाँ—फिर एक-एक-सुन्दरी का आकर अपने आपको प्रदर्शित करना, घूम-घूमकर अपना आगा-पीछा दिखाना, निर्णायकों द्वारा नम्बर दिए जाना—पहले छह, फिर तीन और अन्त में एक सर्वश्रेष्ठ का चुनाव—यानी कूल्हे, कमर, छातियों, टाँगों और चेहरों के इंचीटेप से नाप-जोख, चलने, खड़े होने और दीखने में उनका आनुपातिक उपयोग… कमबख़्त कौन ठूँठ होगा जो इस दृश्य से अपनी आँखों को सार्थक न करे… सुन्दरी तो तस्वीर में भी शोला होती है, फिर ये तो जीती-जागती देवियाँ थीं—हाँ, जो सचमुच वहाँ बैठे तालियाँ बजा रहे थे, उनकी क़िस्मत का तो कहना ही क्या? हरामज़ादे अकेले ही सारे मज़े लूटे ले रहे थे। भाड़ में गई कालाहांडी और चूल्हे में गया पलामू… इस समय मेधा पाटकर, सूजी थारू, मधु किश्वर और नलिनी सिंह जैसियों के नाम लेकर गुड़-गोबर करने की ज़रूरत नहीं है। वह सब है, मगर आख़िर सौन्दर्य-चेतना भी तो कोई चीज़ है, यह सौन्दर्य न हो तो आदमी सिर्फ़ ग़लाज़त, संघर्ष, भुखमरी के बीच कैसे जिएगा? फिर यह कोई नई चीज़ है? न जाने कब से हमारे यहाँ नगर-सुन्दरियाँ चुनी जाती रही हैं। आज भी हर कॉलेज या महिला संस्था का सबसे रोमांचक प्रोग्राम ‘मिस मिरांडा’, ‘मिस मसूरी’ ही तो होते हैं… ईश्वर ने सौन्दर्य दिया है, तो उसे प्रदर्शित करने या तुलनात्मक श्रेष्ठता तय करने में कौन से पहाड़ टूटे पड़ रहे हैं? हमारे इस सामाजिक अहसान को आप क्यों नज़रअन्दाज़ करते हैं कि पहले राजा, नवाब, ज़मींदार अपने हरमों से सुन्दरियाँ बुलवाकर (या उठवाकर) सर्वश्रेष्ठ का ‘चुनाव’ करते थे—मीना-बाज़ार और इन्दर-सभाएँ लगाते थे। हमने अन्य संगीत और कलाओं की तरह सौन्दर्य को भी सामन्ती चंगुलों से निकालकर जन-जन के लिए सुलभ कर दिया है…? अगर शरीर है तो उसे सुन्दरतम रूप में प्रस्तुत करने में न शर्म की ज़रूरत है, न अपराध-बोध की… जो काम सारी संस्कृति, कलाएँ करती आ रही हैं, वही तो हम भी कर रहे हैं—सामाजिक सौन्दर्य-बोध का संस्कार… सौन्दर्य का सामाजीकरण। अब यह पंगा लेने की ज़रूरत नहीं है कि इन सुन्दरियों के कोमल कर-कमलों से हम टायर बेच रहे हैं या स्कूटर… यह सब तो प्रसंगान्तर बातें हैं। यही क्या कम है कि स्कूटर, शैम्पू-टायर ख़रीदनेवाले को यह सुन्दरी मुफ़्त… आज तस्वीर में, कल साक्षात—निर्भर करेगा कि बिजनेस कितना और कैसा देते हैं आप…?

स्त्री अपनी बौद्धिक या अन्य उपलब्धियों के लिए चाहे जितनी हाय-तौबा मचाती रहे, पुरुष की ज़िद है कि साम, दंड, दाम, भेद से वह उसे कमर, कूल्हे, नितम्ब, छातियों से ऊपर नहीं उठने देगा। देह को वह इस धमाके, ग्लैमर और चकाचौंध के साथ पेश करेगा कि हर औरत देह बने रहने को ही अपने होने की एकमात्र सार्थकता मानने को मजबूर हो जाए… उसके दिमाग़ में मज्जा तक खुद जाना चाहिए कि जब तक उसके पास लुभावनी देह है तभी तक उसकी विश्वव्यापी प्रतिष्ठा है, वह हिमालय के शीर्ष पर है… अब (उनके शब्दों में) हीन-देहवाली कुंठित महिलाएँ या स्वामी अग्निवेश जैसे सिरफिरे लाख शोर मचाएँ कि वे हमारी माताएँ और बहनें हैं। उन्हें ‘डॉग-शो’ और ‘हॉर्स-शो’ के धरातल पर मत उतारो, मगर इस नक्कारख़ाने में सुनवाई किसकी है। कितना दयनीय है कि कुत्तों और घोड़ों में जिस इंटेलिजेंस या कौशल को पुरस्कृत किया जाता है, इन नितम्बिनियों या पयोधराओं से वह उम्मीद भी नहीं है। आई क्यू (सामान्य ज्ञान) के लिए ‘आप अगर विश्वसुन्दरी चुन ली गईं तो क्या करेंगी?’ जैसे प्राइमरी स्कूल के स्तर के सवाल ही उनसे पूछना काफ़ी समझा जाता है और वह भी अपनी भोली अदा से आँखें मटकाकर कहती हैं कि ‘मानव कल्याण के लिए मैं अपना सर्वस्व लगा दूँगी…।’ जो उसे सचमुच करना है वह कभी नहीं कहेगी कि इस तमाशे से निकलते ही मुझे मॉडल, एयर होस्टेस, रिसेप्सनिस्ट, एक्ट्रैस बनना है, स्मगलरों और राजनेताओं या माफ़िया सरदारों के लिए ‘पैडलिंग’ करनी है, उनके बिस्तर और शरीर गर्म करने हैं… बाज़ारू और घटिया सवाल ही पूछने हैं तो क्यों नहीं कोई इस विश्वसुन्दरी से पूछता कि मैडोना, पॉमेला बोर्डेस या क्रिस्टीन कीलर के बारे में उसकी क्या धारणा है या ‘सूटेबुल बॉय’ में क्या बात पसन्द या नापसन्द है, खुशवन्त के ‘देहली’ में दिल्ली कहाँ तक है? मगर नहीं, उनसे ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा जाएगा जिसमें बुद्धि, ज्ञान या विवेक का दख़ल हो, वह सब तो पुरुषों की बपौती है। मुझे सचमुच ताज्जुब होता है, इन सुन्दरियों में कभी भी कोई पलटकर क्यों नहीं पूछती कि देह हमारी अपनी उपलब्धि नहीं है, उसे हमने सजाया, सँवारा और तराशा ज़रूर है मगर दी हुई वह हमारे माँ-बाप और प्रकृति की है, संयोग ही है कि वह आपके हिसाब से सुन्दर भी है। इसे प्रदर्शित करना, प्रतियोगिता में रखना, या पुरस्कृत करना हमें कुत्तों और घोड़ों के धरातल पर उतारना है। प्रदर्शन, प्रतियोगिता और पुरस्कार उन क्षमताओं का होना चाहिए जो हमने स्वयं अपने प्रयत्नों से अर्जित की हैं—पुरुष-बाधाओं और अपनी देह की सीमाओं के बावजूद जिन्हें हमने उपलब्ध किया है। नहीं सुन्दरी, आपको यह विशेषाधिकार नहीं दिया जाएगा। आप शरीर की नुमाइश में ही अपनी पहचान या आइडेंटिटी खोज… वह भी अप्रयुक्त, अक्षत-योनि, तरोताज़ा, अनटच्ड बाई ह्यूमन हैंड, ‘फ़्रेश फ़्रॉम द अवन’, सौन्दर्य… बहुत अपमानजनक लग रहा है क्या? शब्दों के अर्थ नहीं जानतीं आप? हमारी नफ़ासत है कि हम आपको ‘मिस इंडिया’ या ‘मिस यूनिवर्स’ का ख़िताब दे रहे हैं वरना आशय तो हमारा ‘वर्जिन इंडिया’ या ‘वर्जिन यूनिवर्स’ से ही है। शायद ‘मिस’ का एक अर्थ यह भी तो है न? ‘परीक्षण’ करके मंच पर आयी हैं न? कितने ख़ूबसूरत शब्द हैं मिस, वर्जिन या वर्चुअस… ठीक वैसे ही दावत देते, लुभावने आमन्त्रण जैसे मिठाई सजाए कोई हलवाई कह रहा हो—आइए मेहरबान, गरमागरम एकदम ताज़ा महकती, रसीली, मीठी और ज़ायकेदार इमरती—सिर्फ़ आप ही के चखने के लिए बचाकर रखी है… कितनी लाख औरतों को मौत के घाट नहीं उतारा है इस वर्जिनिटी, कौमार्य या अक्षत-योनि की शर्त ने… कितने घर नहीं बर्बाद हुए इस एकमात्र शब्द से कि हमसे पहले किसी ने ‘हमारी औरत’ को जूठा तो नहीं कर दिया? कभी किसी पुरुष ने यह शर्त अपने ऊपर लागू होने दी है?

और इन्हीं दुहरे मानदंडों का पिटारा है आज का सारा भारतीय क़ानून… कितना सही नाम रखा है अरविन्द जैन ने अपनी पुस्तक का ‘औरत होने की सज़ा’… कहती रहिए, आप सारे क़ानूनों को सामन्ती, सवर्णवादी या मेल-शॉवेनिस्टिक… हम क्यों आसानी से उस क़ानून में फेरबदल करें जो हमारे ही वर्चस्व में सेंध लगाते हों? हमें क्या मुसीबत है कि अगर औरतें हमारी खेती हों, दो औरतों की क़ानूनी गवाही एक मर्द की गवाही के बराबर मानी जाए, बलात्कार पुरुष करे और उसे साबित करने की ज़िम्मेदारी औरत पर हो और इस प्रक्रिया में पुलिस-कस्टडी या नारी-निकेतन की देखभाल में दस-बीस मर्द और भी बलात्कार का सुख भोगें या वकील भरी-कचहरी में आपके शरीर का एक-एक हिस्सा मजिस्ट्रेट और जज को पेश करे और बेशर्मी से पूछे कि ‘क्या पैनेट्रेशन हुआ था, हुआ तो कितना? इस क्रिया में आपको मज़ा किस क्षण से आना शुरू हुआ?…’ जाइए, लीजिए मदद क़ानून की! क्या आप नहीं जानतीं कि वेश्यावृत्ति में मुजरिम ग्राहक नहीं, वह वेश्या है जो आपको ‘सेवा’ बेचती है? दुकान है और दुकान पर ख़राब माल या ग़ैर-क़ानूनी माल बेचनेवाला ही तो अपराधी है, ख़रीदार को क्यों परेशान होना पड़े?

अच्छा माल देंगी, तो फ़ाइवस्टार होटलों, हवाई जहाज़ों में मिस इंडिया के मंचों पर सजेंगी, ख़राब और घटिया माल देंगी तो फोड़े-फुसी भरे शरीर में मन्दिर के बाहर खुले में, टीन का डिब्बा खनखनाती मक्खियाँ उठा रही होंगी…हर आने जानेवाले को याचनाभरी निगाहों से देखती हुईं…

नहीं मृदुलाजी, सचमुच स्त्री दलित नहीं है। मैं यह भूल गया था कि प्रबुद्ध स्त्री दुनिया की हर स्थिति का मूल्यांकन सिर्फ़ अपनी व्यक्तिगत हैसियत और स्थिति से करती है—बड़े उद्योगपति, अफ़सर, मन्त्री इत्यादि की पत्नियाँ दलित कहाँ हैं? कैसे हो सकती हैं? जो अपने को ऐसा कहती हैं वे मूर्खाएँ ‘रोटी नहीं है, तो केक तो खा ही सकती हैं’, मगर सच पूछिए तो समाज एक लम्बी रेलगाड़ी है, उसके एयर-कंडीशंड कूपे में बैठी औरत दावे से कह सकती है कि वह सैकिंड या थर्ड-क्लास के ठसाठस भरे डिब्बे में बैठी पसीने-पसीने होती औरत से अलग है कि उसे उनके साथ शामिल करके उसका अपमान किया जा रहा है, न उसकी हैसियत उन जैसी है, न सोच—वह अधिक मुक्त होकर चिन्तन कर सकती है। यह मर्द-मानसिकता का घिनौनापन है कि वह दोनों को एक ही बाड़े में धकेलकर अपने बड़प्पन पर गर्व महसूस करे…

काश, इस अलग हैसियत की औरत को किसी तरह यह बात समझायी जा सकती कि ऊँचे-नीचे आरामदेह या तकलीफ़-भरे डिब्बों के बावजूद ट्रेन तो एक ही है और वह एक ही गन्तव्य को जा रही है, दुर्घटना में एक ही नियति को प्राप्त करेगी और एक ही झटके में आप भी पटरी के किनारे उन्हीं रोड़ी-पत्थरों पर बैठी होंगी जहाँ दूसरी बैठी हैं…

मुझे अभी भी लगता है कि ट्रेन एक ही है जिसमें दलित भी बैठे हैं और स्त्री भी—पटरियों की दिशाएँ नहीं बदली गईं तो गन्तव्य भी एक ही है… विश्वास न हो तो कंट्रोल-रूम में पूछ लीजिए…

असल में मृदुला गर्ग ही नहीं, न जाने कितनी प्रबुद्ध महिलाएँ हैं जो इस ठप्पे से भड़कती हैं कि महिलाओं के केस में गहरी उतरेंगी या उनकी अपनी दृष्टि से आवाज़ उठाएँगी तो उन पर ‘फ़ेमिनिस्ट’ (नारीवादी) होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा। दलितों के साथ अपने को जोड़ना तो सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए घातक है ही। ‘कहाँ वे चूड़े-चमार और कहाँ हम…’

पता नहीं, कितनी ऐसी सामाजिक समस्याएँ हैं जिनसे हम आज सिर्फ़ इसलिए बच निकलना चाहते हैं कि कोई ‘ठप्पा’ न लगा दे। उन्हें हमने अपमानजनक ‘टैबू’ बना दिया है। एक हद के बाद औरतों की बातें करेंगे, तो लोग हमें ‘फ़ेमिनिस्ट’ कहेंगे, सामाजिक न्याय की बात करेंगे तो मंडलवादी कहे जाएँगे। ग़रीबी, भुखमरी, शोषण, बेकारी की बात कहेंगे तो लोग कम्युनिस्ट कहेंगे—जीवन का हर मूलभूत सवाल और संघर्ष मानो हमारे लिए वर्जित बना डाला गया है। अफ़सर, उद्योगपति, नेता, साधु और बाक़ी यथास्थिति के अलमबरदार ऐसा कहें तो उनके वर्ग-हित समझ में आते हैं, मगर उनकी ही निगाह में सम्मानित, प्रतिष्ठित, पुरस्कृत होने की लिप्सा में अगर समाज-चेता, विचारक, लेखक और चिन्तक भी उन सवालों को बदनामी के भय से टालेंगे, तो लानत है उनके ‘बुद्धिजीवी’ होने पर। चिन्तन, विश्लेषण, ईमानदारी और फिर अपने या वर्ग-हितों से उठकर, उसे बेलिहाज़, निर्भीक होकर कहने का साहस अगर हमारे पास नहीं है तो ‘बुद्धिजीवी’ होने की मजबूरी क्या है? आज के इस युग में ‘राजनीतिक गन्दगी’ में न पड़ने के डर से लेखक भी अगर इन सवालों से नहीं टकराएगा तो कौन यह ज़िम्मेदारी सम्भालेगा? दलित मानवता की यातना और संघर्ष को कौन वाणी देगा? और अगर यह सब ग़लत है, तो फिर तो सुख-ही-सुख है। शुद्ध और आत्यन्तिक (एब्सोल्यूट) साहित्य का निर्माण कीजिए, ‘साहित्य की स्वायत्त सत्ता’ का अनुसन्धान कीजिए। महिमा-गान और कीर्तन के अन्दाज़ में बताइए कि साहित्य कैसे और कहाँ महान है—उसे भौतिक ताप और पाप से बचाकर अपनी नहीं, दूसरों की चुनी हुई चुप्पियों की फेहरिस्त पेश कीजिए… या आदमी नहीं, हिन्दू होने की त्रासदी पर विलाप कीजिए… बस, साहित्य भी महान, आप भी महान… सब मिलाकर अपना देश महान!

'होना/सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ'

Link to buy:

Previous articleशरणकुमार लिम्बाले – ‘अक्करमाशी’
Next articleआदमियत से दूर
राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र यादव (जन्म: 28 अगस्त 1929 आगरा – मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013 दिल्ली) हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक होने के साथ-साथ हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय संपादक भी थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here