फिर अपने जूतों के फीते कसने लगे हैं—लोग
चील की छाया—गिद्ध बने
उसके पहले ही
भीतर का भय पोंछ
ट्राम-बसों में सफ़र करते—ख़ामोश होंठ
फिर हिलने लगे हैं।
हवा के बदलते रुख़ ने आकाश के पंजे को
दबाकर कर दिया है—छोटा
हथियारों की नोक—तोड़ नहीं सकी
प्रतिवादी मन
ढोल और नगाड़ों के भीतर की पोल को
खोल दिया बड़ी आवाज़ ने
अब कौन-सा नया करिश्मा—
भटकाएगा सबको।
चीज़ों में लगी आग फैल रही है सारे देश में
मार सबकी पीठ पर पड़ रही है
ज़ुबान बोलने वालो की कट रही है।
इतिहास के हर पृष्ठ से
गूँगे लोग चीख़-चीख़कर पूछ रहे हैं—
क्या वर्षों बाद
लालटेन लेकर—फिर खोजनी होगो रोटी?
जिसकी तलाश ही आदमी को बनाती है
ख़ौफ़नाक। मानसिक ग़ुलाम।
मैं लूट-खसोट के राज्य में
ले रहा हूँ साँस
जहाँ बैंक बैलेंस और शारीरिक शक्ति का
नाम है—नागरिकता
आज़ादी—जिसका अर्थ किराये के पंडित बता रहे हैं
कॉलगर्ल—
प्रतिवाद का पुरस्कार है—मौत।
देश के हर कोने से
ख़तरे की घंटियाँ बजने लगी हैं
फ़ील्ड-मार्शल अपने तमग़ों की झाड़ रहा है—धूल
नये सामन्तों के बावर्ची भून रहे हैं माँस
ग़ुलाम बन जाने के अंधड़ में फँसे लोग
फिर अपने जूतों के फीते कसने लगे हैं।
विद्रोही की कविता 'जन-प्रतिरोध'