मैं इक्कीसवीं सदी की
आधुनिक सभ्यता का आदमी हूँ
जो बर्बरता और जंगल
पीछे छोड़ आया है
मैं सभ्य समाज में
बेचता हूँ अपना सस्ता श्रम
और दो वक़्त की रोटी के बदले में
मैंने हस्ताक्षर किया है
आधुनिक लोकतंत्र के उस मसौदे पर
जहाँ विरोध और बग़ावत
दोनों ही सभ्यता का उल्लंघन हैं
इस नये दौर में
सब ठीक हो चुका है
हत्याओं के आँकड़ें शून्य हैं
और मेरे ऑफ़िस में लगे टीवी में
हताश चेहरे अब नज़र नहीं आते हैं
पर यह बात
मैं उस आदमी को नहीं समझा पाता
जिसे कोसो दूर जंगल में
लोकतांत्रिक राज्य की
लोकतांत्रिक पुलिस की गोलियों से
छलनी कर दिया गया है
मैं
एक सभ्य नागरिक हूँ
जिसमें पीड़ाएँ यात्रा नहीं करतीं
वे घड़ी की सुइयों की भाँति
अनुशासन से चलती रहती हैं
और मैं भी
भागता रहता हूँ
सुबह से शाम
जैसे लहराती हो
कोई लाश
अपने ज़िन्दा होने के भ्रम में।
विद्रोही की कविता 'ग़ुलामी की अन्तिम हदों तक लड़ेंगे'