अनुवाद: स्वयं लेखक द्वारा 

‘पड़’ – मृत जानवर, जिसे ढेड लोग काँवरी से उठाकर ले आते हैं और उसकी खाल उधेड़ने के बाद खाने के लिए उसका माँस ले जाते हैं।

आसमान पर गिद्धों का
झुण्ड मण्डराया था
पंख और चोंच की आवाज़ों ने
खिड़की-खिड़की दस्तक दी—
“बैल मरा है! बैल मरा है!”
हवा-सी फैल गई
ख़बर
गली-गली के कोनों में
सारी बस्ती के चेहरे पर रौनक़ थी
निकल पड़े थे सब अपने घरों से
मैं हाथों में पत्थर लेकर गिद्धों पर
फेंका करता था
उनको दूर भगाता था
गिद्ध भी हम पर ग़ुस्सा करते थे
मुझे बराबर याद है
अब तक जिन गिद्धों
को मैंने
पत्थर मारे थे
जिन्हें रखा था
भूखा
आज वे मेरी मौत की
ख़ुशख़बरी सुनकर
मेरी लाश पर
टूट पड़े हैं
और मेरे अंदर के
बैल की
बोटी-बोटी नोचकर
मुझसे
बदला
ले रहे हैं।

जयंत परमार
जयंत परमार उर्दू भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कविता–संग्रह 'पेन्सिल और दूसरी नज़्में' के लिये उन्हें सन् 2008 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।