पापा – हैलो?
मैं – हां, पापा!
पापा – हां, क्या कर रहे हो?
मैं – कुछ नहीं पापा, बस अभी क्लास ख़त्म हुई है।
पापा – अच्छा और सब ठीक है?
मैं – हां, पापा।
पापा – पैसे वैसे हैं न?
मैं – हां पापा, हैं।
पापा – अच्छा ठीक है फिर, रक्खौ।
मैं – ठीक है।
पहले मेरे और पापा के बीच बस इतनी सी बात हुआ करती थी। मुझे मालूम है कि पापा मुझसे बहुत प्यार करते हैं, लेकिन कभी कह नहीं पाते, न वह और न मैं।
गर्मियों की छुट्टियों में जब घर आया तो पता चला कि पापा का एक्सीडेंट हो गया था और घरवालों ने मुझे बताया नहीं था। पहले तो मुझे इस बात पर गुस्सा आया कि आख़िर मुझसे छुपाया क्यों! लेकिन बाद में अम्मी के समझाने पर मैं मान गया।
जब मैं घर पहुंचा था तो पापा लगभग ठीक हो चुके थे लेकिन डॉक्टर ने सख़्त हिदायत दी थी कि अभी बाइक न चलाएं और ख़ासतौर पर भारी बाइक तो बिल्कुल नहीं। इत्तेफाक़ से हमारे घर में उस समय ‘पल्सर 150’ थी जोकि काफ़ी भारी बाइक थी। डॉक्टर के मना करने की वजह से पापा बाइक नहीं चला सकते थे लेकिन इधर-उधर जाना तो लगा रहता था और इतने दिनों से काम भी बंद पड़ा था, इसीलिए अब बाइक संभालने की ज़िम्मेदारी मेरे पास आ गई और यहां से शुरू होता है मेरा, पापा का और पल्सर का सफ़र।
कोई बड़ा भाई न होने की वजह से घर की सारी ज़िम्मेदारियां सिर्फ़ पापा के ऊपर थीं, इसीलिए ज़्यादा दिन घर पर बैठ भी नहीं सकते थे। इसीलिए पापा को जहां जाना होता, मैं ही उन्हें लेकर जाता। कई बार हम सुबह निकलते तो सीधे रात के वक़्त ही घर वापस आते। लेकिन मैं ख़ुश था क्योंकि इसी बहाने मेरी छुट्टियां अच्छी बीत रही थीं, मैं पापा के साथ अच्छा ख़ासा वक़्त गुज़ार रहा था और कभी-कभार बात भी हो जाया करती थी। इसी दौरान पापा बाइक चलाने से लेकर ज़िन्दगी के बड़े-बड़े मसलों पर मुझे समझाते रहते कि कहां ब्रेक लेना है, कहां कितनी रेस देनी है वगैरह-वगैरह। मैंने ज़िन्दगी के बहुत अहम सबक़ इस सफ़र के दौरान पापा से सीखे जो न तो मुझे अभी तक किसी किताब में मिले थे और न ही किसी ‘टेड-टॉक’ में।
डेढ़ महीने कैसे गुज़रे पता ही नहीं चला। डॉक्टर ने पापा से कहा कि अब उनके घाव भर चुके हैं और अब वह बाइक ख़ुद चला सकते हैं। मुझे पापा के स्वस्थ होने की ख़ुशी थी लेकिन मैं दुःखी भी था क्योंकि अब पापा हर जगह अकेले ही जाने लगे थे। मुझे डॉक्टर पर ख़ूब गुस्सा आया और मैंने सोचा भी कि जाकर उनसे कहूं कि आपने इतने जल्दी पापा को बाइक चलाने की इजाज़त क्यों दे दी? अभी तो हम दोनों ने बात करना शुरू किया था, अभी तो हमारे दरमियान दूरियां कम हो रहीं थीं और आपने…! लेकिन मैं क्या करता! वैसे भी वह डॉक्टर साहब भी मेरे पापा की तरह ही हैं। उनका बेटा रय्यान मेरा सहपाठी है और वह भी अपने पापा से ‘एटीएम’ के जैसे ही बात करता है, सिर्फ़ सवाल और जवाब। बल्कि मुझे लगता है कि हिंदुस्तान में ज़्यादातर लड़कों और उनके पिताओं के बीच इसी तरह और इतना ही संवाद होता है।
कई दिन मैं अपने कमरे में बैठकर ख़ूब रोया और मैंने कोशिश भी की कि मैं पापा से बात करूं जैसे अली अपने पापा से करता है लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया। जब भी बात करने की कोशिश करता, ऐसा लगता मानो कोई चीज़ मुझे बात करने से रोक रही हो। न जाने क्यों मेरी हिम्मत नहीं हुई वरना अम्मी से बात करने में मैं ज़रा भी नहीं झिझकता हूँ। लेकिन बात तो करनी ही थी न, क्योंकि अगर मां के क़दमों तले जन्नत है तो उस जन्नत की चाभी बाप ही है।
न जाने मेरे कितने ही दोस्त ऐसे हैं जो अपने पापा से बेइंतहा प्यार करते हैं, अपने दोस्तों को अपने पापा के क़िस्से सुनाते रहते हैं, वो आज भी वही वुडलैंड के पुराने जूते और वही पुराना अंगोछा इसीलिए पहनते हैं क्योंकि वह उनके पापा का है। फ़ेसबुक पर अपने नाम के साथ उनका नाम लिखते हैं। उनके एक इशारे पर कुछ भी कर गुज़रने को तैयार रहते हैं लेकिन कभी इज़हार नहीं कर पाते, कभी कह नहीं पाते कि पापा आई लव यू! मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ।
मेरे वापस हॉस्टल जाने का दिन आ गया और पापा मुझे उसी ‘पल्सर 150’ पर बिठाकर, अपने गले में मेरा बैग लटकाकर, मुझे स्टेशन छोड़ने जाने लगे और मैं पीछे की सीट पर बैठा मन ही मन रोता रहा। जी चाहता था कि वो सामान फ़ेंक कर पापा से गले लगकर रोऊं, कुछ न कहूं बस रोता रहूं, लेकिन कैसे रोता? लड़के तो रो नहीं सकते! यह हमारे समाज की परम्परा जो है। जैसे ही हम चारबाग स्टेशन पहुँचे, पापा ने पूछा कि पेठा लोगे या पंजाबी के यहां से मिठाई पैक करा दें? मैं हर बार की तरह नहीं रहने दो पापा कहकर, न न में सिर हिलाता रहा।
पापा सामान लेकर आगे चल रहे थे। हम प्लेटफ़ार्म पहुंचे तो देखा ट्रेन सामने ही खड़ी हुई थी। पापा मुझसे बोले कि जाकर अंदर बैठो, ट्रेन बस दस मिनट में निकलने वाली है। मैंने सामान अंदर रखा और बाहर दरवाज़े पर आ गया। पापा अपने हाथ में पानी की बोतल लिए आ रहे थे। मैं दरवाज़े से झट से उतरकर पापा के गले लग गया और रोते हुए कहने लगा कि पापा आज मैं नहीं जाऊंगा। पापा को हैरानी हुई कि आजतक कभी इसने ऐसा नहीं किया तो अब क्या हुआ! मैं रोते हुए कहता जा रहा था कि पापा मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊंगा।
पापा बोले, “अरे पागल हो क्या! मैं कहां जाने वाला हूँ।” लेकिन मैं रोये जा रहा था। पापा ने कुछ देर कोशिश की कि मैं चुप हो जाऊं लेकिन हारकर वह ख़ुद भी रोने लगे और बोले कि तुम्हें क्या लगता है कि मैं तुमसे दूर इतने दिन आसानी से रह लेता हूँ? बिल्कुल नहीं! मुझे भी तुम्हारी बहुत याद आती है लेकिन कभी कह नहीं पाता। फ़िर पापा ने मेरा सामान उठाया और बोले कि अब तुम आज नहीं, कल जाना और वापसी में हम उसी लाल ‘पल्सर 150’ पर बैठकर घर आ गए। मैं बहुत ख़ुश था क्योंकि उस दिन मैंने अपने दिल की बात पापा से कह दी।
मेरे और भी दोस्त हैं जो अपने पिताओं से अपने दिल की बात कहना चाहते हैं। बस मेरी यह ख़्वाहिश है कि काश रय्यान, सैफ़ी, सनी, उबैद और सैफ़ भी अपने पापा से गले मिलकर रो लें, उन्हें अपने दिल की बात बता दें फ़िर सब अच्छा हो जाएगा और उन्हें भी पापा के रूप में एक अच्छा दोस्त मिल जायेगा।
वो छुट्टियां मेरी ज़िन्दगी की सबसे ख़ूबसूरत छुट्टियां थीं। मैं, पापा और वो हमारे सुख-दुख की गवाह ‘पल्सर 150’!
Dear Nephew,
You have narrated a powerful emotional picture of a son’s feelings with beautiful simplicity and no emotional jargon. I can’t tell you how much the simplicity of your narration has mesmerized me and how much it might have touched others’ soft and smooth emotions. Keep it up dear boy. Write more so that we can keep reading and feel very proud of you. Stay blessed.
Almas bacha really I crying ? I love you my bestest niece ever. We all feel proud for you❤️❤️❤️
Almas!!!! ….you made me emotional….I literally cried while reading it. It felt like yes it is my story too.