आज सुबह से ही बड़ी उमस थी, हवा बन्द सी थी। पत्ते तक जरा नहीं हिल रहे थे। पंडुक पक्षी की आवाज सारे सूने वातावरण में गूँज रही थी। सुबह से ही पसीने की धार बहने लगी थी। गर्मी तेज हो गई थी। दुपट्टे से पसीना पोंछते-पोंछते कनी का दुपट्टा पूरी तरह गीला हो गया था। वातावरण की उमस को देख लगने लगा था जैसे मानसून बस आने ही वाला है। वैसे इस बार अच्छी वर्षा की आशा थी, क्योंकि पूरी गर्मी के दिनों में एक बार भी पानी नहीं आया था। कनी कबूतरों के दड़बों के पास खड़ी नन्हें-नन्हें उनके नए बच्चों को देख रही थी। कबूतर के बच्चे भी उसे देख अपनी चोंच खोल रहे थे जैसे चुग्गा माँग रहे हों। बाहर दादी के पास कोई आया था, बातचीत की आवाज पूरे घर को लाँघकर पीछे तक जा रही थी। इतनी सुबह कौन आया होगा?

कनी-बेटी, कनी”, दादी ने पुकारा।

दादी की हाँक पर सरपट दौड़ते सारे कमरों को लाँघती वह बाहर आ गई। बाहर रशीद चचा बैठे थे। सुगराबी झाड़ू से घर साफ कर रहीं थीं। रशीद चचा के कान्धे पर मक्का-मदीने का गमछा रखा था। इसका मतलब था मस्जिद से इधर ही आ रहे थे। रशीद चचा काफी खुश लग रहे थे। एक लाल पुड़िया में सोने की वज्जटी रखी थी, उसे दादी को दिखा रहे थे। वज्जटी बड़ी सुन्दर थी, उसमें लाल पोत गुँथी थी।

“बड़ी अच्छी बनी है”, दादी ने वज्जटी देखकर लौटाते हुए कहा, “अब जो भी देना-चढ़ाना हो रशीद, तुम ही करो। मैं कहाँ से लाऊँ? मेरे पास थोड़े से गहने हैं वह मैंने कनी के लिए रखे हैं। सोने की गेंहूमाला, मोहनमाला, कुन्दन का गुलूबन्द वह तो सारे कनी की माँ के पास ही रह गये हैं। अपना चंदनहार तो मैं कब का बेच चुकी हूँ। बस एक पाँच तोले की चेन और झुमका ही बानो को दे पाऊँगी।”

“खाला, तुम्हें इतने सोचने की जरूरत नहीं है। इतना दे रही हो, यही बहुत ज्यादा है। मैं कौन तुम से कुछ कह रहा हूँ। अब सोने का भाव देखो वह भी बढ़ रहा है। पहले जवाहरात की कीमत आँकी जाती थी। सोने को कौन पूछता था? पर अब देखो जवाहरात गायब ही होते जा रहे हैं।”

“जब से अंग्रेजों का राज्य हुआ था, तब से हीरा, नीलम, लाल, पुखराज, पन्ना देखने को आँख तरस गई। सारे जवाहरात गोरी मेमों को भेंट में दे दिये गये हों ऐसा लगता है। अंग्रेज सारे कीमती जवाहरात अपने देश ले गये हैं। खदानों पर उनका हुक्म चलता था। वह मालिक थे और हम लोग सिर्फ मजदूर बनकर रह गये थे। जब से कनी के दादा मरे उनके साथ जैसे इस घर के सारे हीरे-जवाहरात भी कब्र में दफन हो गये। सब सपना सा लगता है। वह इतने पारखी थे कि दूर से ही एक नजर में हीरे की कीमत आँक देते थे। अब तो सोना भी खरीदे कितने बरस गुजर गये। हाँ, क्या भाव चल रहा है सोने का?”

“सोना पैंतीस रुपया तोला पहुँच गया है खाला।”

“खुदा खैर करे”, दादी ने ठंडी साँस भरी, “इतना मँहगा हो गया है? मैंने तो बेटा उन्नीस सौ पच्चीस में पन्दरह रुपये तोले के भाव से सोना खरीदा था। उसके बाद से तो खरीदा ही नहीं। बेटा पहली बार पढ़ने बैठा था, तब शगुन में सबको दिया-लिया था। तभी घर में सेर भर सोना खरीदा गया था। उसके बाद तो ऐसी गर्दिश का दौर रहा कि माशा भर नहीं खरीद पाई। बस मौके-मौके पर घर का ही रखा सोना देने-लेने में काम आया और बुरे दिनों में उसे बेचा तक था।”

“खाला, वैसे अभी सोना ज्यादा बढ़ा नहीं है, पर सुना है अब बढ़ जाएगा। सन् चालीस में पच्चीस रुपये तोला हो गया था और अब देखो पैंतीस का हो गया।”

“बेटा पहले सोने को पूछता कौन था? तब तो पन्द्रह रुपये तोला था, फिर भी कोई नहीं खरीदता था। सोना तो गरीब लोग खरीदते थे। रईस लोग तो हीरे-जवाहरात और मोती खरीदते थे। उसी से इन्सान की हैसियत गिनी जाती थी। सोना तो खैर-खैरात में देते थे।”

“पहले सोने में मिलावट कौन करता था। ठोस गहने बनते थे, आज जैसे नाजुक गहने कहाँ बनते थे। अब तो मिलावट से चाहे जितने कम वजन के गहने बन जाते हैं।”

कनी के दादा ने तो बेटा उन्नीस सौ पच्चीस में जो सोना खरीदा था, उसी ने इस घर की आबरू ढाँक रखी है। उसी को जोड़-घटाते काम चल रहा है। बेटे के ब्याह में भी नहीं खरीदा। सब घर का ही निकाला। रहा-सहा बेटे की बीमारी में चला गया। अब तो समझो कंगाली ने डेरा जमा लिया है। पहले गहनों से औरतों की गदरनें झुक सी जाती थीं। सेर भर सोने की तो हमने हँसली पहनी है रोजाना, सत्तर तोले का चन्दनहार पहने रहती थी, पाँच तोले की सरजे की नथ पहने रहती थी। यह सारा तो पहनना ही पड़ता था। कनी के दादा इन्तेकाल फरमा गए, तब सब उतार कर बक्स में सैंत दिया था।”

“खाला, तुम्हारा चन्दनहार, मोहनमाल तो भाभी ने लौटाया नहीं न?”

“कहाँ लौटाया? उसी का तो इतना झगड़ा था। बाप के घर गई तो बाप-माँ ने बेटी के साथ गहने भी रख लिए। ग्यारह लड़ों का था। दोनों तरफ मोर बने थे। मोर हीरे, नीलम और पन्ने में जड़े गये थे। बेहतरीन काम था। उस जमाने की महीन कारीगरी थी, बारीक पच्चीकारी का काम था। कितने अरमानों से बहू को दिया था, खैर!”, दादी ने कराहकर आह भरी।

कनी को जरूर देंगी भाभी।”

“अब वह बातें छोड़ो। चील के मुँह में माल दबा है, चील मुँह खोले तो हार गिरे। हम तो बस आस कर सकते हैं न?”

“दादी”, कनी ने अचानक पहुँचकर हाजरी लगाई।

“बेटी, जरा सुगराबी से कहना चाय बना दे।”

“अच्छा”, कनी जो दरवाजे की आड़ में खड़ी-खड़ी बातें सुन रही थी, देखा दादी पुराने दिनों में गोता लगा रही हैं तो बोल पड़ी थी।

बावर्चीखाने में कनी पहुँची तो देखा कुलसुम बैठी थी। कुलसुम को देख अच्छा लगा, जाने क्यों राहत सी मिली। दोनों ने एक दूसरे को मुस्करा कर देखा। गुड़िया के ब्याह का झगड़ा दोनों भूल गई थीं।

“बानो आप कहाँ हैं?”, कनी ने पूछा।

“उन्हीं के कमरे से तो आ रही हूँ। वह बेसुध बुखार में पड़ी थीं। उनका गरारा जाँघों पर चढ़ गया था। टाँगें नंगी हो गई थी, पर उन्हें होश तक नहीं था। मैंने उनके कपड़े ठीक किए और चादर उढ़ाकर आई हूँ।”

“सुबह-सुबह कैसे आ गई है?”

“तुझे बताने आई थी। हमारे घर शादी की जोरदार तैयारियाँ हो रही हैं। निकाह का लाल साटन का जोड़ा बनकर आ गया है। गरारे में नखी-गोटा से बेल-बूटे बनाये गये हैं। दुपट्टों में नखी-गोटा का गजरा लगाया गया है। कुरते पर सलमा-सितारे टाँके गये हैं। लाल महजर में मुकेश भरा गया है। जेवर बनकर आ गये हैं। झुमके, वज्जटी, टीका, नथ, चूड़ियाँ सब बनकर आ गई हैं। वलीमे की दावत के लिए पाँच बकरे भी आ गये हैं।”

“अच्छा, मगर यहाँ तो कुछ नहीं हो रहा है”, कनी ने हैरानी से कहा।

“सच, बानो आपा मेरी भाभी बनकर आ रही हैं, सोचकर ही मेरा दिल बाँसों उछल रहा है।”

“बानो आपा की शादी से तुझे बड़ी खुशी हो रही है?”, कनी तमककर बोली, “अच्छा मेरी गुड़िया कैसी है?”

“मजे कर रही है, दूल्हे के संग। अच्छा तू बानो आपा की शादी को लेकर नाराज है न? यह तो बड़े लोगों ने तय किया है। देख, तू यह नहीं सोचती बानो आपा यहाँ रहेंगी तो रोज आती रहेंगी। दूर गाँव चली जाती तो कैसे आतीं? कौन आने देता? हम दोनों मिलकर बानो आपा का ख्याल रखेंगे न, चल गुस्सा थूक दे।”

“हाँ, बात तो ठीक है”, कनी के मन का उफान कुछ कम हुआ।

“देखा बानो आपा के दादा और अब्बा कितने बुरे थे। वह तो समझो अब्बा ठीक समय पर पहुँचे गये थे, वरना वह तो बानो आपा को बन्दूक की गोली से हिरनी की तरह मार देते”, कुलसुम अपनी बहन जैसी आँखे घुमाते बोली।

“इससे तो ठीक था न, मार ही देते। ऐसे भी जीना किस काम का, इसे कोई जीना कहते हैं? जानवरों की तरह है ऐसी जिन्दगी।”

“मगर इन्सान को जानवर की तरह मारते भी तो देखा नहीं जा सकता न? अच्छा बाहर क्या अब्बा बैठे हैं?”

“हाँ? तुने नहीं देखा?”

“नहीं मैं तो पीछे से चुपचाप आई थी। अब्बा को मत बताना मैं आई थी, कल ही अम्माँ पर बरस रहे थे कि लड़की बड़ी हो रही है, सारा दिन धींकमस्ती करते घूमतीं है। मुझे तो लगता है कनी अब यह लोग मेरी पढ़ाई भी बन्द करवा देंगे और मेरी भी शादी कर देंगे। अब्बा सुना है रिश्ता देख रहे हैं।”

“अरे? कनी का चेहरा भय से सफेद पड़ गया, आँखों में पानी उतर आया, बानो आपा चली जाएँगी, तू भी चली जाएगी, सोच मैं कैसे रह पाऊँगी?”

“तेरी भी तो कहीं न कहीं शादी होगी। कोई दूल्हा जरूर अल्लाह ने पैदा किया होगा। अम्माँ कहती हैं, अल्लाह हर इन्सान का जोड़ा भी पैदा करता है। वह भी कहीं न कहीं तो होगा न?”

“बाप रे, इतना कहकर मुझे मत डरा, चल बानो आपा के कमरे में चलते हैं।”

दोनों उठकर बानो आपा के कमरे में चली गईं। कुलसुम ने बानो आपा को जगाया। बहुत मुश्किलों से बानो आपा उठ पाईं। कनी पलँग की पाटी पर बैठी बानो आपा को तकती रही। बानो आपा का बुझा-बुझा सा रूप उसे डस रहा था। काश! खुदा ने इंसानों की तकदीर लिखने का काम उसे दिया होता, तो वह दुनियाँ की तमाम औरतों के नसीब सुनहरे अक्षरों से लिख देती। बानो आपा का नसीब और अम्माँ का नसीब सबसे अच्छा लिखती। ऐसी इबारत लिखती कि वह सारी उम्र सोने के पालने में ही झुलतीं। अल्लाह से लड़-लड़कर सारी औरतों का नसीब माँगती। अल्लाह ने तो नसीब लिखने का काम छठी को सौंप रखा है। वही तो उल्टे-सीधे नसीब औरतों के लिखती है। खुद औरत होकर बुरे नसीब की इबारत लिखती है। क्या अल्लाह को इनके काम का मुआयना नहीं करना चाहिए? उल्टे-सीधे नसीब लिखकर यह लोग अल्लाह को बदनाम नहीं कर रहे? ऐसे ही देखो मौत का फरिश्ता मलकूम-मौत किसी का भी घर उजाड़ कर चला जाता है। अब्बा को जवानी में ले गया, पूरा घर उनका उजड़ गया। काश! यह लोग कहीं मिल जाते तो उनसे जरूर पूछती वह लोग इतने बेरहम क्यों हैं? अल्लाह तो रहम करता है पर यह लोग उसकी नाफरमानी क्यों करते हैं? लोगों का घर क्यों उजाड़ देते हैं? दुनियाँ में बुरे नसीब लेकर पैदा होने से क्या फायदा? कुछ तो सुख-चैन, अपनों का प्यार लिखना चाहिए न? सबको बराबर से सुख और दुःख बाँटना चाहिए न? कहीं तो सुख ही सुख और कहीं दुःख ही दुःख ऐसा क्यों? क्या अल्लाह को कुछ पता नहीं होता? दादी कहती हैं अल्लाह शबरात की रात पहले आसमान पर आते हैं और दुनियाँ के सारे बन्दों की किस्मत का हिसाब-किताब देखते हैं। पूरे बरस का दुःख और सुख देते हैं, इसलिए बन्दों को इस रात इबादत करके खुदा से माँगना चाहिए। तो अल्लाह सिर्फ साल में एक बार पहले आसमान पर आते हैं, बाकी दिन सातवें आसमान पर रहते हैं? ऐसा क्यों? तभी तो उन तक दुआएँ नहीं पहुँचती, उनके फरिश्ते इन्सानों की बात ठीक से नहीं लिखते।

काश! अल्लाह मियाँ हमेशा पहले आसमान पर होते और देखते इन्सान कितने दुःख में पागल हो रहे हैं। उनके फरिश्ते माँ को बेटे से और बेटे से माँ को छीन रहे हैं। ऐसी बदइन्तेजामी से दुनियाँ कैसे चलेगी? कहीं किसी ने बानो आपा के लिए जादू-टोना तो नहीं किया है? दादी बताती हैं कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब पर भी दुश्मनों ने जादू किया था, वह बीमार रहने लगे थे। तब एक जादू के जानकार आदमी ने अपने अमल की बैठक की थी और उससे उसने पता लगाया था कि एक अंधे कुएँ में पत्थर के नीचे ग्यारह गिठान बाँधकर जादू किया था। उस व्यक्ति ने अपने अमल से जादू को तोड़ किया। जैसे-जैसे अमल पढ़ते गए वैसे-वैसे गिठान टूटती गई। टूट-टूट कर गिरती गई। लोग तो इतने बुरे हैं कि पैगम्बरों को भी नहीं छोड़ा तो बानो आपा तो एक लड़की ही हैं। दादी बताती हैं पहले अल्लाह ने इन्सान नहीं बनाया था, जिन्नात बनाये थे। वही दुनिया में रहते थे। उन्हीं का राज्य था। खुदा ने जिन्नातों को एक ही ताकत दी थी और रूहानी ताकत थी और इनकी यही ताकत बहुत तगड़ी थी, जिससे यह किसी को भी डरा कर अपने बस में कर लेते थे। इनका राज्य पाताल में था, जो अभी भी है। इनसे परेशान होकर अल्लाह ने इन्सान बनाये और इसे दोहरी ताकत दी। एक रूहानी और दूसरी जिस्मानी याने आत्मा और शरीर। दो ताकतों के बावजूद भी इन्सान जिन्नातों के आगे, जादू-टोने के आगे, शैतानी ताकतों के आगे हार जाता है। बानो आपा पर भी किसी ने जादू तो नहीं कर दिया? एक के बाद एक मुसीबतें उन्हीं पर क्यों आ रही हैं? वह बगावत क्यों नहीं करती? हार क्यों जाती हैं? टूटती क्यों हैं?

जब भी कभी बानो आपा रात को चुपचाप कनी से अपने बच्चे के बारे में पूछतीं कि वह कैसा दिखता था? क्या उसकी शक्ल पाकिस्तान गये लोगों से मिलती है? तब कनी बौखला जाती, सन्न-सी रह जाती थी। क्या जवाब दे? कब तक झूठ कहकर बानो आपा को तसल्ली दे? झूठ-झूठ ही वह बच्चे के बारे में बताती रहती। उसकी नाक बानो आपा जैसी है, होंठ-आँख एकदम उनके जैसे हैं। सच तो यह था कि उसने भी बच्चे को नहीं देखा था, जरा सी झलक भर देखी थी। कल्पना में वह किसी बच्चे की सूरत उतारती और बानो आपा उस तस्वीर को सच मान लेती थीं। उसकी आँखों में झाँक कर अपने बच्चे की सूरत देखने की कोशिश करती थीं। क्या यह सारी बातें अल्लाह को पता होंगी? और अगर वह जानता है तो अनजान क्यों है? अपने रहमत के फरिश्तों को राहत-सुकून पहुँचाने क्यों नहीं भेजता? या मेरे अल्लाह! अपने रहमत के फरिश्तों को जल्दी भेज, देख बानो आपा कितनी बीमार हैं। मन ही मन कनी अल्लाह से दुआ माँगती रही।

परीक्षाओं के दिन सर पर थे। पढ़ाई करते-करते कनी कब पढ़ते-पढ़ते औंधी हो जाती, पता ही नहीं चलता था। जब बानो आपा आकर उसे किताबों पर से उठातीं और लालटेन उठाकर तिपाई पर रखतीं तब हड़बड़ाकर वह जागती थी और उठकर अपने कमरे में जाकर पलंग पर सो जाती। बानो आपा उसकी किताबें-कापियाँ समेटती रहतीं।

आज भी वह पढ़ाई में व्यस्त थी। कुलसुम भी साथ पढ़ रही थी। आज दोनों ने तय किया था कि जब तक वह खिड़की से धूप का गोला उतर कर उन तक नहीं पहुँचेगा, तब तक उठना नहीं है। आधी दोपहर तक पढ़ना था। दोनों सब कुछ भूलकर पढ़ाई में व्यस्त थीं। अगले माह परीक्षा जो होने वाली थी।

इतिहास की पुस्तक थी, उसमें एक पुराने महाराजा का चित्र छपा था जो देखने में काफी मोटा और भद्दा था। उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें भवों को छू रही थीं। वह महाराजा कम किसी रामलीला का मसखरा ज्यादा लग रहा था। पेट भी मटके की तरह फूला हुआ था। दोनों एक-दूसरे को दिखा-दिखाकर लोट-पोट हो रही थीं। अचानक कमरे में कोई परदा उठाकर आया तो दोनों एकाएक चुप हो गईं।

सामने मोटी सी काया वाली बिस्मिल्लाबाई खड़ी थीं। दोनों चौंक गईं। बिस्मिल्लाबाई की सूरत पुस्तक के चित्र से काफी मिल रही थी। मोटी तो वह वैसी ही थीं। सब लोग उन्हें बिस्सों कहते थे। हर घर में शादी ब्याह में ढोलक बजाना और ब्याह के गीत गाना उनका काम था। ठिगनी और मोटी सी थीं, आँखें धँसी सी थीं। मुँह में तम्बाकू वाला पान हमेशा ठुँसा रहता, पान की पीक होठों के किनारे से बहती ठुड्डी तक उतरती, तो उसे वह अपने अँगूठे से पोंछती रहती थीं। हाथ-हाथ भर चूड़ियाँ पहने रहतीं थीं। हँसी-ठिठोली करने वाली हँसमुख औरत थीं। बिस्सो बाई का चूड़ियों वाला मोटा हाथ जब छनाकेदार ढोलक पर पड़ता तो उसकी थाप सारे मोहल्ले के कोने-कोने में सुनाई देती। बिस्सो बाई की ढोलक सारे मोहल्ले को मुनादी कर देती थी कि ब्याह का शगुन शुरू हो गया है। वह चलती थीं तो ठुमकी लगाकर चलती थीं।

“बीबी, हल्दी की बोरी कहाँ है? हल्दी निकालनी है, उबटन पीसा जाएगा।”

“उबटन पिसा जाएगा? किसलिए?”, कनी ने चमक कर पूछा।

“लो, अरे बीबी, बानो बीबी के लिए चिकसा नहीं पीसा जाएगा? गेहू भुन गए, चिकसे के मसाले पीस गए, अब हल्दी के साथ सब पीसा जाएगा न, शाम को बानो बीबी को माँजे बैठाना है, रात को मीलाद है, फिर सारी रात मेरी ढोलक बजेगी न”, बिस्सो बाई ने ठुमक कर मुनादी करी।

अरे, इतना सब हो गया? कनी का कलेजा धक से रह गया, लगा खून कहीं जम गया है, चेहरा सफेद सा पड़ गया, लगा किसी ने ठोकर देकर औंधे मुँह गिरा दिया है।

“अरे, तुम दोनों कैसे भकवे सी होकर देख रही हो? बीबी पढ़ाई करो, पर इतनी नहीं कि दिमाग फिर जाए। घर में क्या हो रहा है, देखो तो? घर में कोई ब्याह खुशी होती है तो यूँ चमगादड़ों की तरह मुँह नहीं लटकाते बीबी?” बिस्सोबाई ने तुनक कर अपने मोटे शरीर को ठेला सा दिया था।

“इसकी तो बहन है पर मेरी तो अब वह भाभी है, मैं क्यों चमगादड़ों सा मुँह लटकाऊँ? बताओ कितनी हल्दी चाहिए? वह कोने में बोरी रखी है”, कुलसुम प्रसन्नता से चहकती बोली। उसकी खुशी मन में नहीं समा रही थी। हाथ उठाकर हल्दी की बोरी का ठौर दिखाने लगी।

कुलसुम पलंग से खड़े-खड़े झट छलाँग लगाकर कूदी और अँधेरे कोने में रखी हल्दी की बोरी को घसीट कर सामने कर दी। बिस्सोबाई ने बोरी का बँधा मुँह खोला और बड़े से पीतल के कुंडे में पलट कर आधी बोरी हल्दी भरकर ले गईं। कनी पलंग पर ही बैठी रह गई। कुलसुम दौड़कर बाहर भाग गई थी। बाहर चक्की का नेग हो रहा था। कनी के मन पर गहरी ठेस सी लगी। लगा शरीर बेजान ठीहा बनकर रह गया है।

बिस्सोबाई चक्की पर बैठ गई थीं। उनके सर पर नई पीली चुनरी उढ़ा दी गई थी। नेग का सामान नई पीतल की थाली में दे दिया गया था। थाली में बिस्सो बाई के लिए बनारसी साड़ी, चाँदी की बिछिया, चूड़ियाँ, काली पोट, इक्यावन रुपये रख दिए गये थे। नेग लेकर बिस्सो बाई ने चकिया घुमाई और शगुन का गीत शुरू किया। ढोलक के साथ गीत के बोल घर के कोने-कोने में गूँजने लगे। घर की दीवारों पर उनकी रिदम थिरकने लगी। सबके चेहरों पर उमंग-उत्साह की रंगत दौड़ने लगी। चक्की पर पिसते चिकसा की सोंधी महक चारों ओर उड़-उड़ कर छाने लगी। घर के बोझल वातावरण में मस्ती-तरंग उतरने लगी। चिकसे के उबटन में जड़ी-बूटियाँ तथा सन्दल और खश की जड़ पीसी जा रही थी। उसकी सुगन्ध घर से गलियों में उतर कर ब्याह की मुनादी कर रही थी। बिस्सो बाई के शगुन के गीत ने सुखे बूढ़े चेहरों को भी हरियाली में बदल दिया था। बरसों-बरसों बाद शगुन की नीलकण्ठी चिड़िया के फड़फड़ाते पंखों को किसी ने देखा था। सुरमई हवा की तरंग में डूबी चिड़ियों ने छत की मयालों पर बैठकर चकराई आँखों से घर के नए वातावरण को तका था। गीत के सुरों में बूँद-बूँद करके मन का आवेग उतर आया था। बरसों से बारिश की सीलन के बाद जैसे सूरज की सेक मिली थी। थके चेहरे रौनकदार होकर दमकने लगे थे।

ढोलक की थाप पर बिस्सो बाई के गाये बन्नी के बोलों में थके-सूखे-बंजर-बेजान चेहरों पर बारिश की पहली फुहार का सुख भर दिया था। बूँदा-बाँदी से सूखे पत्ते-से चेहरे हरे हो गये थे। बन्नी के बोल वहाँ बैठी औरतों के चेहरों को सुख दे रहे थे। बसन्त जैसे हर मुख पर खिल-खिला उठा था। बुलबुल जैसे आँगन में उतर आई थी और उसकी कुहक से पूरा वातावरण गुलजार हो उठा था। बूढ़े चेहरों पर भी जवानी की लुनाई लौट आई थी। आँखों में मीठे शहद भरे सपने जी उठे थे। आँखें अपलक सी खुली तकती रह गई थीं। सब ठगी-सी मद से भरी बैठी थी। बन्नी के गीत के बोल के साथ अपने मायके के आँगन में उतर गईं थीं। बन्नी के गीत ढोलक पर सदियों से गाये जाते हैं। नन्हीं बच्ची से लेकर बूढ़ी औरत तक इन बोलों को सुनकर जी उठती है, उनके मन में तरंगे उठने लगती हैं। लेकिन क्या बन्नी के यह मीठे बोल कभी जीवन में सत्य होते हैं? क्या कभी हकीकत में बदलते हैं? मीठे शहद से भरे जब वेदना के कड़वे जहर में बदल जाते हैं, तो फिर औरत क्यों बन्नी गाती है? बन्नी के बोल के साथ क्यों अपने जीवन के सपनों का गठन-बंधन कर लेती है? औरत क्यों हमेशा अपने को निछावर करने के लिए और गठाने के लिए आतुर रहती है? बूढ़ी औरत जो खुद ठगी जाती है फिर वह क्यों नई थिरकती बच्ची को थिरकने से रोक नहीं पाती है? खुद सुधबुध क्यों खो देती है? माँ बनने के सुख के अलावा पुरुष से कभी कुछ नहीं मिला? युगों से खुद लुटती रही और अपनी नई पीढ़ी को लुटने के लिये प्रेरित करती है, ऐसा क्यों? अल्लाह ने औरत को इतना नासमझ-भाग्यहीन क्यों बनाया? इसीलिए तो पुरुष कहता है कि औरत में अकल नहीं होती। अकल होती तो बलि का बकरा बनने को हमेशा आतुर क्यों रहती?

बूढ़े-सयाने-जवान और नन्हीं बच्चियाँ सब बैठी बन्नी के बोल के साथ तरंग में मस्त हो रही थीं। सब पर जैसे किसी ने अफीम की मस्ती छिड़क दी थी। सब सुहाग के लाल बोल के धमक के साथ कभी न जी पाए अपने सपनों की ठंडी बावड़ी में उतर गई थी, बावली में उतर कर और छबक-छबक ठंडे पानी का मीठा-सा आनन्द ले रही थीं।

ढोलक के गीत आँगन में बतासे सा मीठा स्वाद दे रहे थे। ढोलक की ठनक से पूरा घर गूँज रहा था –

देखा आई टमटम की बहार,
बन्ना मेरा मोटर से आया जी।
बन्नी की दादी रोये जार-जार,
बन्ना मेरा मोटर से आया जी।
बन्नी की बहना बड़ी नखरेदार,
नेग में माँगे सोने का हार,
बन्ना मेरा मोटर से आया जी।
बन्नी को साजे सोलह श्रृंगार,
कोई बन्नी की दे नजरें उतार,
बन्ना मेरा मोटर से आया जी।

आम की टहनियों से छोटा-सा मंडप बनाया गया। बीच में लकड़ी की चौकी रखी गई। चौकी के नीचे चावलों से भरा मुरादाबादी लोटा रखा गया था। बानो आपा को एक औरत हाथ पकड़कर कमरे से बाहर लाई। पीला हल्दी रंग का दुपट्टा ओढ़े बानो आपा आईं और चौकी पर बैठ गईं। बुखार से उठी, कमजोर सी बानो आपा पीले रंग के गरारा-कुरते और पीले दुपट्टे में बहुत सुन्दर लग रही थीं। बानो आपा को माँझे बिठा दिया गया। सभी औरतें खुश थीं। बानो आपा जिन्दगी के चक्रव्यूह में घिर गई थीं।

कनी भी बाहर निकल कर आ गई थी और दरवाजे से टिकी उतरती साँझ में होते इस माँझे बैठाने के उत्सव को निहारती रही। देखते ही देखते सात सुहागनों ने उठकर बानो आपा को चिकसा लगाया, सर में चमेली का तेल डाला और उनके बालों को कंघी करके पाँच फेटे की चोटी में गूँथा। बानो आपा की गोरी काया पीले रंग में रंग गई थी। उनकी पलकें नीचे झुकी थीं। बानो आपा एकदम अपरिचित सी लग रही थीं।

थोड़ी देर बाद बानो आपा अपने कमरे में पहुँचा दी गई। कनी दौड़कर उनके पास पहुँच गई और झट दरवाजा भीतर से बन्द करके साँकल चढ़ा दी, ताकि कोई और न आ सके। बानो आपा अपने पीले दुपट्टे पर गिरे चिकसे के उबटन को फटकार रही थीं। कनी से आँखें मिली तो वह उदास सी हो गईं, उनकी आँख भीग उठीं।

औरत की जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है? एक दुःख का साग खत्म नहीं होता कि उसे दूसरे के लिये तैयार होना पड़ता है। इन्सान को अकेले भी रहने नहीं दिया जाता है। समाज-रिश्ते उसे कैसे चारों ओर से घेरे रहते हैं। इससे तो अच्छा था, मुझे कुआँ-बावड़ी में ढकेल देते, बानो आपा पलँग पर बैठी फूट-फूट कर रो रही थीं। भीतर के छुपे बन्द नाले जैसे फूट कर बाहर आ गये थे। और आँखों से बहने लगे थे। उनका विलाप कमरे की दीवारों तक को कँपाने लगा। कनी दुःखी आँखों से उन्हें देखती रही। बानो आपा कैसे उजाड़, बियावान, सुनसान-वीरान जंगल की तरह हो गई थीं। सूखकर काँटा रह गई थीं। बुखार ने उन्हें कमजोर और बेदम सा कर दिया था। शरीर की एक-एक हड्डी दिखने लगी थी। सारे दुःखों ने एक साथ उन पर हमला कर दिया था। सूने-अँधेरे रास्ते में भूत-पिशाच इन्सान को अकेला देख घेर लेते हैं, ऐसे ही दुःख ने उन्हें दबोच रखा था। लोग कहते हैं अँधेरे के बाद उजाला आता है और रात के बाद दिन होता है पर उसने तो बानो आपा के नसीब में कभी सबेरा होते नहीं देखा था। तो क्या दादी जितनी कहावतें बोलती हैं सब झूठी हैं? बानो आपा उस बदहवास चिड़िया की तरह बेहाल हो उठी थीं, जिसका बसेरा किसी ने उजाड़ दिया था और उसके अण्डे कुचल दिये हों। जिन्दगी इतनी बेरहम क्यों है? उसका कलेजा इतना सख्त क्यों है? उसे किसी पर रहम क्यों नहीं आता? कनी दुःखी आँखों से रोती बानो आपा को देखती रही। काश! वह कोई जादू जानती तो कितना अच्छा होता, झट से बानो आपा को मक्खी बनाकर कहीं छुपा देती। या फिर ऐसा होता कहीं से कोई लालपरी आ जाती और बानो आपा को उड़ाकर कहीं ले जाती। किस्से-कहानियों में जैसा होता है ऐसा जिन्दगी में क्यों नहीं होता? कहीं से कोई राजकुमार बचाने क्यों नहीं आता?

कनी चुप उन्हें निहार रही थी। सांत्वना, दिलासा, उपदेश, धैर्य, राहत के लिए उसके पास एक शब्द नहीं था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे अच्छे बोलों से सामने वाले को ढाढ़स बंधाया जाता है।

जो खुद याचक की भूमिका में रहा हो, जिसने केवल जिन्दगी में अँधेरा ही अँधेरा देखा हो, वह कैसे उजाले की और तसल्ली की बड़ी-बड़ी बातें करे? खुशहाली पर कैसे दलील दे? दुःखों को ही उसने अब तक देखा और महसूसा था। उपदेश, समझाईश तथा नीतिगत बातें तो वह लोग करते हैं जो खुद दलदल के बाहर सूखी जमीन पर खड़े होते हैं। दूर खड़ा व्यक्ति ही राय उपदेश देता है। कनी को तो आज तक खुद अपने जीवन के प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले थे।

दुःखों को समझना-बूझना तो आया ही नहीं। जब भी बानो आपा रोईं वह खुद रो पड़ी। उसने तो केवल बावड़ी में नीचे के लिये अँधेरे की तरफ उतरने के लिए सीढ़ियाँ देखी थी। ऊपर आने का या वापसी का मार्ग तो वह जानती ही नहीं थी। उसने तो अपने को और बानो आपा को समय के हाथों नाचती कठपुतली की तरह ही देखा था। कठपुतली जो केवल नाचना भर जानती है अपनी इच्छा से तो एक हाथ भी उठाना नहीं जानती।

कनी दीवार से टिकी बानो आपा को मौन भयभीत सी होकर देखती रही, अब बानो आपा भी चली जाएँगी? वह एकदम अकेली रह जाएगी। अम्माँ गई, अब्बा की तो सूरत याद नहीं। बस दादी के बक्से में चाँदी के छोटे से फ्रेम में जड़ी उनकी तस्वीर भर देखी थी। सब कहते थे इसलिए वह भी सोचती थी कि यही उसके अब्बा हैं, इसके ऊपर उनके लिए कोई एहसास नहीं जागता था।

कनी अपनी रूलाई दबाये बाहर बगीचे में आ गई और बाहर आकर उसने जोर-जोर से साँसें भर कर अपने को ठीक किया। आँगन में औरतें ढोलक पर बड़े अच्छे ब्याह के गीत गा रही थीं। कुछ औरतें रात की दावत के लिए चावल बिन रही थीं। चावलों के कंकड़ तो साफ कर लिए जाते हैं, ऐसे ही जिन्दगी के कंकड़ क्यों नहीं साफ हो पाते? सब कुछ निकाल फेंकने की हिम्मत क्यों नहीं होती? जब खाने के लिये साफ-सुथरा चावल चाहिए तो ऐसे ही जीने के लिए भी साफ-सुथरी जिन्दगी क्यों नहीं मिलती?

तभी सामने से किसी के पदचाप सुनाई दिये, सर उठाकर देखा कुलसुम थी। कुलसुम आकर कनी के पास बैठ गई।

“यहाँ अकेले में क्यों बैठी हैं कनी?”, कुलसुम अठखेली से बोली।

“अन्दर मन नहीं लग रहा है, सच कुलसुम तू बानो आपा का ध्यान रखेगी न?”

“कैसी बातें कर रही है? बानो आपा कहीं दूसरे घर जा रही हैं? तेरा और मेरा घर अलग-अलग है?” कुलसुम अवाक् सी रह गई।

“और शादी के बाद वह पाकिस्तानी लोग बानो आपा को लेने आ गये तब?” कनी का चेहरा भावहीन पत्थर की तरह हो गया था।

“छोड़, जाने तू भी बूढों जैसे बैठी-बैठी ख्वाबी पुलाव पकाती रहती है। भला पाकिस्तान गये लोग क्यों आयेंगे? सब छोड़ गये। अपनी जायदाद, धरोहर, अब क्यों आने लगे?” कुलसुम भी विचलित-सी हो उठी।

“क्या प्रेम भी छोड़ गये? प्रेम छोड़ा जाता है? बानो आपा जैसे तड़पकर उन्हें याद करती रहती हैं, क्या वह भी याद करते होंगे? क्या वह चाँद देखकर कोई पैगाम देते होंगे?” कनी दूर कहीं अंतरतम में उतरते सूखे कंठ से बोली।

“तुझे क्या हो गया? कैसी बावली जैसी बातें कर रही है? कैसी बनमानुस जैसी शक्ल बना ली है, चल हाथ-मुँह धोकर ढंग से कपड़े पहन ले।”

“अच्छा बता पाकिस्तान कितना दूर होगा? देखना बड़े होकर मैं एक दिन जरूर पाकिस्तान जाऊँगी और बानो आपा के प्रेमी को ढूँढ़कर बानो आपा के सारे दुःखों का हिसाब लूँगी”, कनी ने दर्द से भरकर कहा।

“तू किस-किस से हिसाब लेगी? सारी दुनिया में यही हो रहा है। हमेशा औरत ही ठगी जाती है.. उसका ठौर कहाँ है? औरत को ही अपनी बलि देनी पड़ती है”, कुलसुम ने आँखों में आँसू भरकर कनी को ढाढ़स दिया।

कनी हक्की-बक्की सी कुलसुम के सयानेपन को देखती रह गई। उसकी अपनी आँख के आँसू सूख गये थे। ठगी-सी वह कुलसुम को ताकती रही जो पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी थी। क्या यह कोई नई कुलसुम नहीं थी?