बातें

समय की रेखाओं में नहीं उलझती जो
घर लौटती भी है
तो देर रात की सी चुप-चुप
और मेरे दिल के फ़र्श पर
छप जाती है
मिट्टी और ओस में लिथड़ी-
तुम्हारे पैरों की ख़ुशबू-
तुम्हारे पैरों की ख़ुशबू
जब-जब आती है
मुझे मेरे होंठों के होने पर
गुमाँ होता जाता है

“तुमने अपनी पायल कब उतारीं?”

“तुमने अब तक उन्हें छुपाकर रखा है, उल्लू!”

खन खन खन…
एक खनक-सी उठती है
कहीं मेरे भीतर

बन्द दरवाज़ों पर लगे परदों से कई अधिक
तुम्हें
नंगी सड़कों पर ऐतबार था
और सिगरेट के धुएँ में पता नहीं
तुमने किन-किन चेहरों से बातें कीं

“कल कौन आया था तुम्हारे सपनो में? वो टूटे चेहरों वाला आदमी?”

“औरत थी वो! प्लाथ।”

जो तितलियाँ तुमको
देखकर नहीं शरमातीं
मैं उनके टूटे पंखों को अपनी जेबों में भरकर घूमता हूँ
और चाँद को गालियाँ देना-
हम,
जो टूटी हुई छतों के नीचे पले हैं
हमने अपने उदास आँगनों से सिर्फ़ यही सीखा है-
चाँद को गालियाँ देना
और चूल्हे की बासी राख में
अपने-अपने हिस्से की गर्मी की तलाश

“अब जब मैं सोचता हूँ, तो लगता है कि जैसे सारी उम्र मुझे तुम्हारी ही तलाश थी।”

“मैंने तो उस लड़के से प्यार किया था जो अपनी बकरियों को घर लाना भूल जाता था अक्सर। उसको मालूम भी क्या हो कि उसे किसकी तलाश है!”

बीत से गए
हम-तुम

नदी किनारे बैठे
हर शाम
मेरी आँखों-सी ही उदास लगती है
मगर जो दाग़
तुम्हारे चेहरे पर फैला है
(तुम-सा)
बहे हुए नमक के दाग़ों से
कहीं अधिक हसीन होता है

“मेरा चेहरा, टूटकर कहीं ढह गया है।”

“मेरे सीना मिट्टी से भर गया है
..क्या तुम अपनी आत्मा की जड़ें टटोल सकते हो
मेरे लिए?”

तुम्हारा झुमका

मैं चाहता हूँ
कि हम पकड़े जाएँ
एक-दूसरे से प्रेम करते हुए
और मार दिए जाएँ
किसी बन्दूक़ की आवाज़ पर
या किसी छूरी की चमचमाहट से
या किसी रॉड के भार से।

मैं चाहता हूँ
हम मरने से पहले लिपट जाएँ एक-दूसरे से
और छू लें एक दूसरे की साँसों को,
पहली बार!
और हमारे बदन में बची थरथराहट
कोई कसर न छोड़े
एक-दूसरे की
अधमरी,
ख़ून से लथपथ देह को
पूरा मारने में!

मैं चाहता हूँ
कि हम दफ़ना दिए जाएँ,
देह के ऊपर देह,
उसी आम के बग़ीचे में
जहाँ हम छुप-छुप के मिलते थे
और साथ बैठकर बीड़ी पीते थे।

मैं चाहता हूँ
कि हम मार दिए जाएँ
बहुत चुपके-से
बिना किसी शोर के
और फिर हमें कभी कोई खोजे ना।

मैं नहीं चाहता
कि हमारी दफ़्न हड्डियों पर
आज से डेढ़ सौ साल बाद शोध हो।
मैं चाहता हूँ कि आज से डेढ़ सौ साल बाद
अगर कोई खोज निकाले हमारी क़ब्र
और खोदे उसे
तो मेरे छाती की एक हड्डी से
लटक रहा हो
तुम्हारे कानों का एक झुमका।

अपनी-अपनी शान्ति में

अपनी शान्ति में मैंने तुमसे
क्या कुछ नहीं कहा
और
तुम्हारी शान्ति ने मुझको
क्या कुछ नहीं दिया?

ख़ामोशी के दरमियाँ,
यूँ भी होता है कई बार
जब आँखें आपस में बाँट लेती हैं
एक दूसरे के ख़्वाब
और हम जान भी नहीं पाते
कि हम एक-दूसरे के भीतर
जागने लगते हैं
रात-भर!

सौंप दो

सौंप दो मुझे वे रंग सभी
जो किसी के नहीं, किसी के नहीं।

मूँदी हुई आँखों के
इन्द्रधनुषी पर्दों का रंग;
ख़्वाहिशों के बिछे
हरे मैदानों में
फूल से खिले, सपनों का रंग-
मुझे सौंप दो।

धरती और मिट्टी का रंग :
तुम्हारी देह का;
सरसों और चम्पा,
चमेली की ख़ुशबू का रंग:
कानों पे खिले
झुमकों का –
मुझे सौंप दो।

आत्मा का दूधिया रंग
धूप-छाँव की दुविधाओं का भी
पलकों पे दूब सा-
सब, मुझे तुमसे चाहिए।
तुमसे!

मुझे आसमाँ की स्थिरता का रंग
या तारों में जलते हुए तारों का रंग
सब तुम्हारी आँखों में ढूँढना है।

मुझे प्यार का लाल
और ख़ून में घुले पसीने का रंग
सब तुम्हारे साथ बिखेरना है
किसी सादे काग़ज़ पे
मतलब के गुधे आकार में।

मुझे तुमसे ही चाहिए सब कुछ

हर रंग

मुझे सौंप दो

सौंप दो!

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हर्ष भारद्वाज
जन्म परवाहा, बिहार में। श्री वेंकटेश्वर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक जारी। कुछ कविताएँ स्त्रीकाल, बनास जन और सदानीरा में प्रकाशित।

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