Poems: Manisha Kulshreshtha

ओ फ़्रीडा

ओ फ़्रीडा
अपने बालों को खोल दो
उनमें बन्द मकड़ी को कैनवास पर चलने दो
ये जो गुँथे हैं बालों में
अजीब से जंगली फूल
ये तुम्हारी जलती कामना में राख हुए जाते हैं
इन्हें हहराते आवेग में बहा दो न!
तुम्हारा चेहरा एक हस्ताक्षर-भर है तुम्हारा
तुम्हारे तंतु तो मुझ तक फैले हैं
तुम्हारी जुड़ी भौंह पर
मैं उँगली रखती हूँ
तुम मुस्कुराती हो
मेरे सीने पर पलटकर तर्जनी रखती हो
मैं मुस्कुराती हूँ
कुनमुनाकर नींद में…

क्लियोपैट्रा

इतनी सुर्ख़ कि
वे लाल की जगह काली दिखने लगें
ऐसी अंजीरों की टोकरी में किसने छिपाया था
अंजीरों-सा ही चमकीला मिश्री फणिनाग?

क्लियोपैट्रा
अपने पिता की आँख का नूर
यही था तुम्हारे नाम का अर्थ
तुम्हारी जिजीविषा इतनी कम न थी
तुम नहीं कर सकती थीं आत्मघात
अपने पहले और अन्तिम प्रेम
अलेक्जेंड्रिया के लिए रची थीं
तुमने प्रेम की संधियाँ
सीज़र के बाद मार्क एंटनी
तो आक्टेवियो को बांधना मोहपाश में
कहीं दुष्कर न होता तुम्हारे लिए

रोम की आँख की किरकिरी थीं तुम
इतिहास में अडिग!
स्वर्ण की धूल की आँधियों
स्वर्ण के वरक़ों वाली किताबों का नगर था अलेक्जेंड्रिया
कोई भी उसे पाना चाहता

प्रेम करते हुए सीज़र को भी तुमने
बहुत कुछ उपहार में दिया
स्वर्ण रेशों का कालीन, स्वर्ण और स्वर्णिम गुम्बदों-से वक्ष
मिश्री शाहकार-सी वह तनी नाक
तराशे ऊँचे स्तम्भों की जाँघें

टोलोमी साम्राज्य के विशुद्ध रक्त में
तुमने मिला लिए रोमन बीज
मिस्र के आज़ाद अस्तित्व के लिए
अगर तुम करतीं भी आत्मघात तो यूँ न करतीं
करतीं विषधर का अन्तिम गहरा चुम्बन
उसकी आँख में आँख डाल
दुरभिसंधिसुर्ख़ ऐसी कि
काली लगने लगें ऐसी अंजीरों की टोकरी में
हाथ डाल चुपचाप
तुम नहीं मर सकती थीं तुम
क्लियोपैट्रा!

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