प्रस्तुति: विजय राही

तुम

तुमने कहना नहीं चाहा
लेकिन कहा
पेड़ से बाँध दो इसे
खाल उधेड़ो इसकी
इच्छा पूरी करो बस्ती की।

बाक़ी मुझे बेच दो
या शादी करो
रहूँगी तो इसी की
कौन है जो मेरे लिए
मरने यहाँ आया है।

जी लेंगे

क्या तुम्हारी लूगड़ी मेरी आँख से गीली हो गई
अब तुम इसे सुखाओगी कैसे
क्या तुम्हारे पाँव पर मेरे हाथ की छुअन छूट गई
अब तुम इसे छुपाओगी कैसे।

क्या थोड़ी देर और बैठे रहना था
खेत की मिट्टी में
अब हम इसे दोहराएँगे कैसे ।

हम जहाँ-जहाँ मिले
बैठकर जीवन के दिन सिले
मैंने समय की कटाई की
और तुमने तुरपाई
वहाँ-वहाँ कुछ न कुछ तो उग ही रहा होगा
आक, धतूरा या ईख की पेंगे
हम उन्हें ही देख-देख जी लेंगे।

ऐसा क्या हो गया

ऐसा क्या था
कि वह मुझे देखे बिना रह नहीं सकती थी
ऐसा क्या था
कि मैं उसे देखे बिना रह नहीं सकता था।

ऐसा क्या था
कि वह मेरे ही बारे में सोचती रहती थी
ऐसा क्या था
कि मैं उसके ही बारे में सोचता रहता था।

ऐसा क्या था
कि पूरे समय वही होती थी मेरे सपनों में
ऐसा क्या था
कि पूरे समय मैं ही होता था उसके सपनों में।

ऐसा क्या था
कि गलियों में निकलता था यह सोचकर
काश! वह किसी काम से निकली हो
और सच में वह किसी काम से निकली होती थी
और दिख जाती थी।

ऐसा क्या हो गया
मेरे देखने को, मेरे सोचने को, मेरे सपनों को
यह सोचकर गलियों में निकलने को
काश! वह किसी काम से निकली हो।

ऐसा क्या हो गया
उसके देखने को, उसके सोचने को
उसके सपनों को
घर से किसी काम से निकलने को!

Previous articleऔरतें
Next articleजिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
प्रभात
जन्म- १० जुलाई 1972. कविताएँ व कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। २०१० में सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार और भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार और २०१२ में युवा कविता समय सम्मान। साहित्य अकादमी से कविता संग्रह 'अपनों में नहीं रह पाने का गीत' प्रकाशित।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here