Poems: Rakhi Singh

जूड़े वाली औरतें

कुछ अधिक दृढ़ निश्चयी लगती हैं मुझे
अपने बालों को
कसकर बाँधे रखने वाली स्त्रियाँ
जानती हैं वो
अपने लिए निर्णयों पर अटल रहना
अनुचित रोक-टोक,
बिना अनुमति का हस्तक्षेप नहीं सुहाता इन्हें

अपने जूड़े से बाँध लेती हैं वो हवाओं को
नापसंद है इन्हें हवाओं के इशारों पर
इठलाना बालों का।

शृंगार विज्ञान

कभी जब
अंतर्द्वंद्व के फंदे कसने लगते हैं अपनी ही गर्दन
कोई अंदरूनी पीड़ा हो उठती है इतनी चोटिल कि
रक्त में डूबा लगता है अंतर्मन

कभी यूँ ही
रुंधे कण्ठ पर स्वर भारी हो
मौन की पुरज़ोर वाणी हो
नाग, तिलचट्टे, छिपकली, चीटियाँ
ख़ालीपन में रेंगने की बारी हो
कहने को अनगिनत बातें हों
बातों पर अनकही हावी हो
जब मन ढूँढता हो कोई कांधा
पर सामने अकड़ में बैठी हुई तन्हाई हो

तब कोई स्त्री करने को उठती है शृंगार
किसी प्रशंसा की कामना में नहीं
सौंदर्य विज्ञापन भी उसका उद्देश्य नहीं
रूप वर्णन सुनने की भी कोई इच्छा नहीं

बल्कि इसलिए कि कुछ देर आँख मिलाकर
दर्पण के सम्मुख बैठी रहे
अपनी कहे, अपनी सुने

शृंगार कभी सहेली बना
स्त्री ने उसके कंधे पर सिर टिकाया
उसके गले लगकर रोयी
सुख-दुःख साझा किए
मन हल्का किया

स्त्रियाँ इसलिए भी करती हैं कभी शृंगार
कि वो स्वयं पर, अपने समय पर अपनी दावेदारी रख सकें।

खिड़कियाँ

वो सारी अधूरी कविताएँ
जो किसी भी कवि के हाथों कभी पूर्ण न हुईं,
लिपियों के वो अक्षर जो अंकित न हुए
संसार के किसी शब्दकोश में,
वो प्रेमपत्र जिन्हें डाला न गया हो डाक में,
वो कहानियाँ जो संरक्षित न हुई किसी संग्रहालय में

संकोची प्रेमियों की वो पुकारें जो
पहुँच न सकीं गन्तव्य के कानों तक,
वो अस्फुट स्वर जो अटका रहा गले में,
वो तरसी आँखें
जो सदा के लिए मुँदने से पहले
देख न पायीं प्रिय को अपने

उन सभी अतृप्त आत्माओं की पुनर्जन्म हैं
खिड़कियाँ!

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