ना ठीक-ठीक फूल-सी नाज़ुक
ना ही पत्तियों-सी चंचल
किसी बड़ी बात की तरह भी नहीं,
क्रिया के बाद बची रह गयी
किसी अनन्य क्रिया की तरह है
पोंछने की क्रिया
जैसे माँ पोंछती है नहलाकर बच्चे की देह
और दिनभर खिलखिलाता है बच्चा
पोंछता है चाँद थके सूरज का पसीना
पोंछने से चमक जाते हैं फ़र्श, शीशे और सामान
जैसे लहर पोंछकर ले जाती है गुज़र चुके पैरों के निशान
मृत्यु पोंछ लेती है देह के दुःख
अभी भी पोंछने को बाक़ी हैं बहुत कुछ
तुम उच्चारणा मुझे कहीं से भी
तुम्हारी हथेलियों को याद कर
तुम्हारी आवाज़ के पानी से पोंछ लूँगा मैं
आत्मा के तमाम दाग़
मैं पुकारता हूँ तुम्हें
पोंछ लेना तुम अपने सारे आँसू
कि पोंछने से ही भरते हैं घाव, कमते हैं दुःख
इसी से बंधते है आस और इंतिज़ार
यही पिघलाकर करती है रेत को मुलायम
और बचाती है एक सम्भावना
कि कोई लौटे दोबारा साहिल पर
और छोड़ सके अपने पैरों के निशान।