जीवन का प्रगति पत्र जब पलटा तो देखा—
बचपन से मासूमियत रही सर्वोपरि
कितनी सीधी, कितनी प्यारी
बहुत आज्ञाकारी, कामकाजी
फलानी ढिमकानी से नवाज़ा गया।

जवानी में ख़ूबसूरती ने बाज़ी मारी
हाथ पीले होने में जूते नहीं घिसने पड़ेंगे
वक़्त रहते रमा दो गृहस्थी में
बहुत सुघड़ है, सब सम्भाल लेगी।

ब्याह के बाद जाँगर का रहा बोलबाला
सब सम्भालती है हँस-बोलकर
आदमी की जेब का हिसाब नहीं रखती
गीहथिन है, दो रोटी मिल जाए और क्या चाहिए।

जवानी ढलने लगी
मासूमियत, ख़ूबसूरती, जाँगर
लड़ बैठे आपस में
कोई टस से मस ना हुआ।

अब वो थोड़ा आज्ञाओं को अनसुना करने लगी
तो मासूमियत उसकी बिक गयी
बताया गया बहुत चंठ है।

पति को बांध न सकी
लानत है ऐसी ख़ूबसूरती पर
ख़ूबसूरती मिट्टी का ढेर हो गयी।

जाँगर कम हुआ तो पैसे का सहारा लगा
रखने लगी थोड़ी नज़र पति की जेब पर
थोड़ा कम ख़र्चा किया करो
जब तक उड़ाओगे तब तक के ही साथी हैं सब।

नहीं होता झाड़ू पोंछा इस महल का
कामवाली लगवा दो
सुनो आज कमर दुख रही
कुछ बाहर से मँगवा लो।

जंगरचोर है, खाना बाहर से मँगवाया
अरे पैसों पर नज़र रखती है
बिस्तर पर पसरी रहती है
पति के पैसे लुटा रही है।

और जाँगर लुट गया
कोई लुटेरा न दिखा
पर जंगरचोर का दर्जा मिला।

कुछ नहीं था अब उसके पास
बस ज़बान में ताक़त आ गयी
सब जाँगर, ख़ूबसूरती, मासूमियत
जो सब खोया था उसने

धार दिया उस सब ने ज़बान को
अब सुनती कम थी
बताने को रहती थी बेताब
मासूमियत से जाँगर तक का हिसाब।

बताया गया बहुत तेज़ है वो
घरवालों ने बड़ा एडजस्ट किया है
और वो समझ गयी
एडजस्टमेंट बस होती है ज़ुबाँ की।

गूँगी औरतें ख़ूबसूरत होती हैं
और ज़हीन भी
चाहो तो ज़ुबाँ काटकर देख लो।

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