‘Safe Zone’, a poem by Rupam Mishra
प्रेम में हारी स्त्रियाँ धीरे-धीरे प्रबुद्ध होती जाती हैं
क्योंकि दिन-रात वे भटकती रहती हैं
किताबों और ग्रन्थों में
ये हँसती, निभाती हैं सारी दुनियादारी
पर भीतर की तटस्थता उन्हें अयाचित रखती है
ये सद्भाव तो रखती हैं संसार के सारे प्रेमीजन से
पर प्रेम फिर किसी से नहीं कर पातीं
क्योंकि प्रेम बना चुका होता है
एक सेफ़ ज़ोन इनके आसपास
जिससे निकलना ये पसंद नहीं करतीं
इनकी सारी शोख़ी
एक असंग प्रेम की बलि चढ़ी होती है
ये याद रखने वाली सारी बातें भूलती हैं
और भूलने वाली सारी बातें याद रखती हैं
ये मन बहलाने के लिए ही सही
पढ़ने लगती हैं अकादमिक, दर्शन और अध्यात्म
हालाँकि तब ये चैतन्यशील स्त्रियाँ
पुरुषों को कम भाती हैं
क्योंकि पढ़ते हैं वो अमृता को
सराहेंगे इमरोज़ को
पर प्रेयसी या पत्नी में हमेशा ढूँढते हैं माँ को
उन्हें नहीं हज़म हो पातीं
मार्क्स और लेनिन पर बातें करती लड़कियाँ
उन्हें साड़ी लिपिस्टिक में डूबी स्त्रियाँ
हमेशा मोहक लगती हैं
वो वाम और दक्षिण पर
सटीक विश्लेषण करती स्त्री को
बताते हैं कि चूल्हे पर सब्ज़ी जल रही है
आत्ममुग्ध पुरुषों को खीझ होती है
उनके गढ़े गये विचारभ्रम से
किसी स्त्री का डूबकर उतरा जाना
वो नहीं ठहर पाते स्त्री के विचारों में
वो बार-बार अटकते हैं स्त्री के देह गठन पर
ऐसी स्त्रियाँ उदास हो जाती हैं
उम्र पूछते प्रबुद्ध पुरुषों को देखकर
वो बोल्ड बताएँगे
दैहिक स्वतंत्रता पर भ्रमित स्त्री को
वो पिछड़ा कहेंगे
मर्यादा का बखान करती स्त्री को
संकीर्ण बोलेगें
अश्लीलता पर भड़की स्त्री को
पर अपने घर में स्थायी रहने वाली स्त्री
उन्हें संस्कारी ही चाहिए।
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