याक… याक… ओS S याक… पेट का बवंडर जब नाबदान पर खाली हो गया तो मेरी घिन भी साथ ही साथ नाली में बह गयी। मैं अब भी हाँफ रही थी, मुँह का स्वाद अब भी कसैला बना हुआ था। मैं माँ बनने वाली थी। इस दशा में तो चित्त वैसे भी बहुत संवेदनशील हो जाता है लेकिन अभी घटित मेरी मिचली और उल्टी क्या गर्भावस्था की संवेदनशीलता मात्र थी? मैं बिस्तर पर लेटकर अपनी इस हालत के उत्तरदायी घटकों को ढूंढने का प्रयास करने लगी।

मैं यानि शाकुम्भरी मात्र आधे घण्टे पूर्व ही तो टीवी के सामने अपना प्रिय शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ देखने बैठी थी। सुपरस्टार व होस्ट अमिताभ बच्चन के सामने मेहमान के रूप में आये थे जाने-माने अभिनेता मनोज बाजपेयी। अपने साथ वे अपने गृह प्रदेश से एक व्यक्ति को लेकर आये थे जो वहाँ के एक जनजाति का मुखिया था तथा उसने अपने समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने के लिए एक संगठन की स्थापना की थी। उस मुखिया का परिचय देते हुए मनोज बाजपेयी ने  बताया कि उसके समाज में चूहा आहार के रूप में सम्मिलित है। बस इतना परिचय जानने के बाद मेरी कल्पना के घोड़े उस जनजाति की रसोई और थाली तक जाकर विचरने लगे और यही विचरण मेरे मस्तिष्क से पेट की ओर बढ़ते हुए बवंडर के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसे भीतर रोक पाना और आगे का शो देख पाना दोनो ही मेरे नियंत्रण से बाहर हो चुके थे।

गर्भावस्था में मिचली और उलटी की आम समस्या ईश कृपा से मुझे तो ना थी पर किसी घिनप्पन पर तुरंत अनियंत्रित मिचली आने की मेरी पुरानी प्रवृत्ति थी। मेरी जिज्ञासा आज की घटना की उन जड़ों को तलाशने लगी जिनमें मेरा कारण अटका था।

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(चार वर्ष पूर्व)

मैं चिड़चिड़ाती हुई अपने पिता के साथ उस कच्चे रास्ते पर बढ़ी जा रही थी जहाँ का धरातल मेरे लिए सर्वथा अपरिचित था। मैं नाराज थी अतः पिता जी के पीछे-पीछे बढ़ी जा रही थी। कल का वार्तालाप मेरे मस्तिष्क में अनचाहे दौड़ लगा रहा था-

“कंप्यूटर के रोस्टेड सिस्टम से कछारे में स्कूल मिलल बा, हमसे ना होई नौकरी। हम्म वहाँ ना रहब।” (कछार या बाढ़ क्षेत्र में स्कूल मिला है, मुझसे नहीं होगी नौकरी। मैं वहाँ नहीं रहूँगी)।

मैं सरकारी नौकरी के ख़िलाफ़ थी पर पिता जी के हुक्म के आगे बेबस। पिताजी का कथन मुझे याद आ रहा था – “देखबू ए कुम्मू! बड़े आदमी के घर में जनम भईल बा, मँगले भिखियो न मिली।” (देखो! बड़ी जाति या सवर्ण के घर में तुम्हारा जनम हुआ है, मांगने से भीख भी नहीं मिलेगी)।

पिताजी के डायलॉग के कई प्रत्युत्तर मुझे मालूम थे, पर मैं अदब के कारण चुप रह गयी। पिताजी मुझसे बोले कि सोचने से तो समस्या का हल मिलेगा नहीं। मैं हूँ ना, मैं चलकर बात करता हूँ, रहने-खाने का इंतजाम देखता हूँ… और पिताजी अपने इन्हीं हथियारों से अपने विटप-छ्त्र होने का आदर्श स्थापित कर जाते हैं। विवेक और साहस ही विपरीत परिस्थितियों को हराने के अचूक यन्त्र हैं, ये बातें मेरी तैशवाली बुद्धि में उस वक़्त कहाँ आ रही थीं? फिर मुँह अँधेरे ही पिताजी मुझे लेकर बस से, घर से तक़रीबन एक सौ दस किलोमीटर दूर प्राथमिक विद्यालय में, मेरी नियुक्ति कराने चल पड़े थे।

नियमित साधनविहीन उस मार्ग पर दो किलोमीटर पैदल चलते हुए हम दोनों पिता-पुत्री भटकते हुए एक गलत विद्यालय पर पहुंच गए। वहां से नियत विद्यालय का सही मार्ग व पता ज्ञातकर हम फिर तक़रीबन एक-डेढ़ किलोमीटर और पैदल चलकर अपने सही गंतव्य तक आखिर पहुंच ही गए।

जुलाई माह की उमस भरी गर्मी और धूप से हमारे चेहरे तपकर भट्टी हो रहे थे। उस विद्यालय में प्रधानाचार्या व दो मानदेय शिक्षक कार्यरत थे। पिताजी ने उस निर्जन में मेरे रहने व विद्यालय आने की समस्या से उन्हें अवगत कराया जिसका समाधान मेरी प्रधानाचार्या जी ने चुटकियों में कर दिया। उन्होंने मेरे पिताजी को बताया कि यह गांव उनकी ससुराल है पर यहां से सात-आठ किलोमीटर दूर निकटवर्ती कस्बे में वह रहती थीं, जहां से वह नियमित अपनी कार से विद्यालय आती थीं। उन्होंने कहा कि मेरे घर में, मेरे अवकाश प्राप्त पति के अलावा और कोई नहीं रहता है, मेरे बच्चे बाहर रहते हैं। यह मेरी बेटी की तरह मेरे साथ रहेगी और मेरे साथ ही विद्यालय भी आ जाया करेगी और इस तरह पिताजी को उन्होंने आश्वस्त कर दिया। मुझे लगा जैसे मेरे परोपकारी पिताजी के पुण्यों का यह प्रसाद उन्हें विधाता से भेंट स्वरूप मिल गया है। इस प्रकार लगभग छः माह तक उस विद्यालय में कार्यरत रहते हुए उस दंपत्ति ने मुझे मातृवत् स्नेह देते हुए बड़े प्रेम से अपने घर में निशुल्क, निःस्वार्थ भाव से रखा।

ज्वाइनिंग के बाद उस विद्यालय के परिवेश का निरीक्षण करने पर मैंने पाया कि मुझे विद्यालय की चहारदीवारी के अलावा वहाँ का सब कुछ मैला सा दिखता था। मेरा विद्यालय ‘डोम’ नामक जनजातियों की टोली में स्थित था। डोम- एक ऐसी जनजाति जो शूकर पालन, बांस के शिल्प, श्मशान घाट पर मुर्दा-कर लेने, साफ-सफाई का काम करने के साथ अपनी जातिगत निम्नता के लिए कुख्यात है। इनके यहां पढ़ाई लिखाई का तो कोई रिवाज़ नहीं था पर विद्यालय में उनके घरों के चार-पांच बच्चे यदा-कदा आते-जाते रहते थे। मैंने जब अपने प्रधानाचार्या जी से इस संबंध में बात की तो वह बताने लगीं कि- “‘सर्व शिक्षा अभियान’ में नामांकन बहुत जरूरी हो गया था तो हम इन सब को बुला-बुला कर समझाए कि बिना पैसा का नाम लिख जाएगा, स्कूल से ड्रेस मिलेगा, रुपया (छात्रवृत्ति) मिलेगा, किताब मिलेगी…. बस लइकन को स्कूल भेजो और तुम्हारा एक भी पैसा फीस नहीं पड़ना है। तब जाकर पूरा टोली से कहीं पांच बच्चों को भेजे सब। ओहूं में (उसमें भी) हफ्ते में दो-तीन दिन आते हैं सब। कहां ले केहू इनके पढ़ाई (कहां तक कोई इनको पढ़ाएगा)।”

मैं उनकी बातें सुनते हुए छः-सात साल की दो लड़कियों की मांग में सिंदूर भरा हुआ देखकर हैरान हो रही थी। मेरी दृष्टि में भरे हुए अचरज का मंतव्य वे समझ गईं और बोली, “पांचे साल-छः साल में इनके यहाँ शादियाँ हो जाती हैं।”

इसके बाद मुझे लगा जैसे बाल विवाह का कानून, कानून की देवी की आंखों की काली पट्टी के पीछे जा छुपा था।

एक दिन विद्यालय में लंच करने के लिए मैंने अपना टिफिन ज्योंही खोला, त्योंही हलाल होते हुए शूकर की बिलबिलाती आवाज ने, मेरे कर्ण द्वारों से प्रवेश करते हुए मेरे मस्तिष्क के सूचना संकलनों के ऊपर घिनप्पन का पेंट लगा दिया, जिसके परिणाम स्वरूप मुझ में मितली और उल्टी के तत्व उत्तेजित हो गए। मैं ऑफिस से निकलकर भागकर बरामदे में पहुंची जहां प्रधानाचार्या अन्य शिक्षकों के साथ बैठी थीं। वह बोलीं, “आज तs बुझाता डोम-टोली में दावत चली (आज तो लगता है डोम-टोली में दावत होगी)। हम अपने ससुराल जा रहे हैं नहीं तो हम हृदय रोगी हैं, हमको यहीं दौरा पड़ने लगेगा।”

और इतना कहकर वह विद्यालय से चली गईं। मैं मुंह सिकोड़ते  हुए बोली, “मुझे भूख लगी थी पर अब मुझसे खाया न जा सकेगा, इन्हीं कर्मों की वजहों से यह लोग अछूत हैं।”

मेरी संकुचित सोच को देखते हुए एक शिक्षक मेरे उजड़े हुए चेहरे के उड़े हुए रंग को भाप कर लगभग मेरी हंसी उड़ाते हुए मुझसे बोले, “अरे मैडम! जैसे आप मुर्गा, बकरा खाती हैं वैसे ही ये लोग शूकर खाते हैं। वह सब गरीब हैं मछली, मुर्गा, बकरा खरीदने की ताकत उन सबके पास कहां है? तो वह सब शूकर खाकर ही अपने आहार में प्रोटीन की पूर्ति करते हैं सब।”

मैंने उनके वाक्यों का समादर करते हुए उत्तर दिया, “हां मास्टर साहब! ठीक कहा आपने, हमारे संस्कारों ने हमें मछली, मुर्गा और बकरा खाने के लिए ही प्रतिबद्ध किया है। बाकी किसी और मांस का स्वाद लेना या तो पाप है अथवा सनातन परंपरा से बिलग कोई व्यवहार। इसीलिए हमारी सवर्णता के शौर्य और तेज का प्रताप इतना बढ़ गया कि उसने कथित निम्न जातियों की रोटी तक जला डाली।”

इसके बाद उस विद्यालय से स्थानांतरित होने तक मैंने उस विद्यालय में कभी लंच नहीं किया।

धान की कटाई शुरू हो गई थी और बच्चे विद्यालय से नदारद थे। प्रधानाचार्या महोदया खींझ उठी थीं- “का बताएं यही प्राइवेट स्कूल में फीस भरकर, रोज जूता-मोजा पहनाकर गार्जियन स्कूल भेज देते हैं लेकिन यहां बच्चों को विद्यालय तक भेजने में सारा करम हो जाता है। क्या किया जाए, किसको पढ़ाया जाय?”

उनकी खीझ जायज़ थी। मुझे विद्यालय की कार्यविधियों ने इतना अवश्य समझा दिया था कि हमारे यहां सरकारी स्कूलों में भविष्य के मज़दूर तैयार होते हैं, जबकि कान्वेंट स्कूलों में टैक्स देने वाले नागरिक।

अंततः छः माह पश्चात उस दूरदराज के कछार वाले डोम टोली के विद्यालय से अपने क्षेत्र में स्थानांतरित होने का सुअवसर मुझे मिल ही गया। इस सूचना ने छः माह से सोई हुई मेरी प्रफुल्लता को जगा दिया था। वहाँ की एक शिक्षिका मुझसे कहने लगी, “शाकुम्भरी मैडम! अब आप चली जाएँगी, आप थीं तो आपके नवाचारी शिक्षण से विद्यालय की पढ़ाई में लाभ हुआ था। ज़्यादा बच्चे विद्यालय आने लगे थे, बड़ी मैडम थोड़ी उदास हैं। आप चली जाएंगी…. आपकी याद आएगी…।”

“…और मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करूंगी कि मुझे पुनः यहां कभी ना भेजें… इतने बज्जर (बज्र) देहात में।” मैं उसकी बात काटते हुए बोली।

मेरे शब्द उसके जन्म स्थान से जुड़ी भावनाओं पर जा बरसे थे जिनको उसने जोरदार मारक बनाकार मुझे वापस किया- “आपकी नौकरी तो गावें की है। यहाँ नहीं आएंगी तो कहीं और जाएँगी। नौकरी तो छोड़ नही देंगी मैडम जी?”

इस सवाल ने मेरे नेत्रों के सामने छनकते सिक्कों में जैसे छेद कर दिया। चिढ़ और क्षुब्धता का राग अपने भीतर स्वरबद्ध करते हुए मैं अपने रास्ते हो ली बिना उसे पलट कर देखे।

नम्रता श्रीवास्तव
अध्यापिका, एक कहानी संग्रह-'ज़िन्दगी- वाटर कलर से हेयर कलर तक' तथा एक कविता संग्रह 'कविता!तुम, मैं और........... प्रकाशित।