भूल जाती हूँ तुम भी उतना ही रास्ता पाट चुके हो
मेरे साथ-साथ
उतने ही श्रान्त-क्लान्त
मैंने जाना जो था
तुम्हें एक पुरुष
छाता
ठिया
रोटी और सैर

भूल जाती हूँ
तुम्हारे भी गतिहत चरण चुन रहे होंगे
समय की घास पर अंकित अपनी छापें
काल के निप्रींत पैरों से डरकर

तुम्हें भी टेरता होगा आकाश
‘पतिपन’ और ‘पितापन’ की
खोखल से उचककर
ओ तुम!
जाओ
त्वरित हों तुम्हारी अधूरी यात्राओं के पैर
छोड़ जाओ बेशक यहीं
अपने श्रमिक कन्धे
ले जाओ अपनी आँखें
कान
नाक
मन
खोज लो अपनी धारा
एकदम विवस्त्र होकर…

Book by Raji Seth:

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