‘Savinay Anurodh’, a poem by Swati Kelkar

किसी ने कहा
“तुम्हें देखकर लगता ही नहीं
कि तुम इतने बड़े-बड़े लड़कों की माँ हो।”

इसे मैं अपनी तारीफ़ समझूँ या अपमान?

औरतों की उम्र नहीं पूछनी चाहिए!

क्यों भला? क्या ये भी मासिक की तरह
कोई लज्जास्पद विषय है कि चाहे वो
हर महीने झेलना पड़े पर उसकी
खुलेआम चर्चा नहीं होनी चाहिए?

लगता नहीं कि तुम पचास के क़रीब हो..
बस तीस-पैंतिस से अधिक नहीं लगती।

माफ़ कीजिए, लेकिन मेरी
पचास साला ज़िंदगी का
कोई एक साल भी इतना बेमानी
तो हरगिज़ नहीं था कि उसके
अस्तित्व को ही नकार दिया जाए।

याद करने बैठूँ तो कोई ऐसा साल
नहीं दिखता कि जिसने मुझे
कुछ ना कुछ ना दिया हो।

अच्छा या बुरा चाहे जैसा हो,
ऐसा कोई पल नहीं जिसने मुझे
थोड़ा और समृद्ध ना किया हो।

हर एक साल की क़ीमत
अदा की है मैंने पूरी पूरी,
ऐसे कैसे मैं कुछ सालों का
हिसाब चूक जाने दूँ।

बेटे पैदा हुए थे, तो बड़े भी हो ही जाते,
लेकिन तब से लेकर आज तक,
यक़ीन मानिए
हर घड़ी, एक माँ होने के नाते,
अपनी तरफ़ से, अपनी तरह से।
बहुत मेहनत की है मैनें।

अपने बड़े-बड़े बच्चों को
मैं बड़े गर्व से देखती हूँ।
तो मैं इन बड़े-बड़े लड़कों की माँ
क्यों ना दिखूँ, कि मैं भी तो
बड़ी हो रही हूँ उनके साथ।
इस बड़प्पन में लघुता कहाँ है?

लेकिन यदि किसी वजह से
आप मेरी तारीफ़ करना ही चाहते हैं,
तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है।
बस एक सविनय अनुरोध है।

मुझे छोटा करने की बजाय
यूँ कहिए कि
जीवन की इतनी आपाधापी
उतार-चढ़ावों में भी तुमने
अपने बाल-बच्चों, घर-बाहर
और दुनिया भर के मसलों के साथ-साथ
ख़ुद को भी बहुत बढ़िया सम्भाला है।
यही बात तो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।

है ना!!

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