अब तो करवा लो बीमा। महँगा नहीं है। टीवी पर इंश्योरेंस वाले भाईसाहब दिन-भर अपनत्व भरा उलाहना देते रहते हैं। ड्राइंगरूम के काउच पर अधलेटे सिक्सटी प्लसजी को लगता है कि बाज़ार उनके परलोक गमन के इवेंट पर निगाह गड़ाए बैठा है। किसी ने सीनियर्स के व्हाट्सएप ग्रुप पर बताया— “सीपी वाले चोपड़े का फ़ोन नम्बर सब लोग लेकर रखो। वक़्त ज़रूरत काम आएगा।”

“कौन चोपड़ा?” किसी ने पूछा।

“वही जो पहले रेल में बिना रिज़र्वेशन बर्थ दिलवाता था। अब बताते हैं कि उसके मेडिकल बिरादरी में अच्छे कनेक्शन हो लिए हैं। कभी इमरजेंसी हुई तो ले-देकर बंदा किसी न किसी ढंग के अस्पताल में बैड दिलवा ही देगा। लोग कहते हैं कि बंदा है तो चार सौ बीस पर दिल का भला है। मार्केट में उसकी अच्छी रेपुटेशन है। मार्केट सदा मक्कारों की मदद करता है।”

“किसी मोरचुअरी वाले का भी अता-पता ले दो। कौन जाने इस कोरोना काल में कब उसकी ज़रूरत आन पड़े।”

किसी ने तल्ख़ हक़ीक़त बयाँ की तो ग्रुप पर माहौल ज़रा बोझिल हुआ। तब ग्रुप एडमिन ने तुरंत कुछ हँसती-गाती इमोजी डाल त्वरित हस्तक्षेप किया। स्थिति कुछ सामन्य हुई। आज के समय में इमोजी ही हैं जिसके इस्तेमाल से वातावरण में व्याप्त कड़वाहट ज़रा कम हो जाती है। सोशल मीडिया पर तो तेज़ाबी अल्फ़ाज़ हरदम गश्त करते हैं। इमोजी कभी-कभी फ़ायर ब्रिगेड का काम कर देती है। बदलते वक़्त के साथ बहुत-सी चीज़ों के किरदार बदल गए हैं।

कोविड आगमन से पहले वह अच्छे-ख़ासे सीनियर सिटिज़न थे। सुबह सवेरे देह पर बहुरंगी ट्रेक सूट सजा और पैरों में तोतई रंग के स्पोर्ट्स शू धारण किए मॉर्निंग वॉक पर आते-जाते। वहाँ से लौटते हुए रेहड़ी पर खड़े हो करेला, टमाटर, गिलोये आदि का जूस पीते। बातों ही बातों में जताते कि इस उम्र में भी वह फ़ाइटिंग फ़िट हैं। उनके बेटा-बेटी यूएस में वैल-सैटल्ड हैं। वे वहाँ चमचमाती गाड़ी में फर्राटा भरते हैं। उनके नाती व पौत्र गोरे-गोरे और नीली आँखों वाले हैं। वे धड़-धड़ इंग्लिश में बतियाते हैं।

बच्चे महीने-दो महीने में वीडियो कॉल कर कुशलक्षेम ज़रूर पूछ लिया करते थे। आजकल वे सभी मुँह पर मास्क बाँधकर हेलो-हाय करते हैं। वे डरते हैं कि कहीं वर्नाकुलर वायरस उन्हें ऑनलाइन अपनी चपेट में न ले ले।

आजकल चैनल वाले उम्रदराज़ लोगों को सरकारी अस्पतालों की कर्तव्यनिष्ठ कारगुज़ारी बार-बार दिखा, दिन-भर डराते रहते हैं। बार-बार बताते हैं कि सिक्सटी प्लस वाला एक बार रोग की जकड़ में आया तो गया। टेस्ट रिपोर्ट जब पॉज़िटिव आएगी, तब तक आ ही जाएगी। उससे पहले अधिकांश सगे सम्बन्धी आपको ‘डिटेक्ट’ हुआ पाकर तत्काल अपनी कॉन्टेक्ट लिस्ट से डिलीट कर देंगे। सयाने बता रहे कि भावुक लोग इसकी पकड़ में जल्द आ रहे हैं। शायद यही वजह है कि कोई बंदा संक्रमित हुआ कि लोग बतौर एहतियात कंधे उचकाकर तुरंत कहते हैं— “इन फ़ैक्ट, वी डोंट नो हिम पर्सनली।” ताकि वायरस उन्हें भावनात्मक एंगल से भी छूने न पाए।

महामारी के चलते सिक्सटी प्लस वालों की बाय डिफ़ॉल्ट कन्टेनमेंट ज़ोन में उपस्थिति मान ली गयी है। एनआरआई प्रजाति की संतति वक़्त-बेवक़्त हेल्थ एडवाइज़री जारी करती रहती है कि पापा, यह करना और यह न करना। कम खाना, ग़म खाना पर पानी गुनगुना ही पीना। ड्रिंक्स लेना पर ऑन द रॉक्स न लेना। सादा पानी मिला लेना। लेकिन काढ़ा हमेशा गर्मागर्म लेना। 40 डिग्री तापक्रम और 80 प्रतिशत आद्रता में एसी ऑन न करना। कहते हैं ठण्डी शुष्क हवा पाकर वायरस वहीं अपनी कॉलोनी बसा लेते हैं। बात-बात पर भूले-बिसरे दिनों का हवाला न देना। डायरी में भी अपने पुराने सुनहरे दिनों का कभी ज़िक्र तक न करना। अलबत्ता इस मुद्दे पर कविता लिखना चाहो तो लिख डालना। आपके टाइप की कविताओं को वहाँ समझता ही कौन है। वैसे तो शायद ही कोई पढ़ता हो। लेकिन अतीत की जुगाली कभी न करना। एक्चुअली, नॉस्टैल्जिया किल्स। इसे स्मोकिंग से भी अधिक हानिकारक माना जाता है। सिर्फ़ माना ही नहीं जा रहा, दरअसल वह घातक है ही।

बेटी कहती— “डैडी, बैठे-ठाले सपने मत देखने लगना। एक्सपर्ट कहते हैं कि स्वीट ड्रीम्स हमारे इम्यून सिस्टम को भुरभुरा बनाते हैं। अच्छी हेल्थ के लिए ड्रीमलेस नींद ही मुफ़ीद होती है।”

बेटा जब-तब ताकीद करता कि सपने देखो तो शुगर-फ़्री देखना। पापा, यू आर बियोंड सिक्सटी। बचके रहना।

बेटी ने तुरंत कोलोन में निचोड़ा रुमाल दिखाया— “डोंट बी इमोशनल डैडी। जाओ अपनी आँखें भी अच्छे से सेनेटाइज़ कर लो।”

“चिल्ल पापा चिल्ल।” बेटे ने गोदी में बैठाए गए झबरीले कुत्ते के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े इत्मिनान से कहा। तब कुत्ते ने सहमति में जिस तरह दुम हिलायी तो लगा कि वह मालिक की हाँ में हाँ मिला रहा है। हमारे अहद के कुत्ते भी बड़े चापलूस क़िस्म के हो लिए हैं।

ये बातें सुन सिक्सटी प्लसजी इतनी ज़ोर से हँसे कि उनकी आँखें भीग गयीं। ये गीलापन खारा था या सादा, क्या पता।

निर्मल गुप्त की कविता 'साठ पार का आदमी' 

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]