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जसवीर त्यागी की कविताएँ
प्रकृति सबक सिखाती है
घर के बाहर
वक़्त-बेवक़्त
घूम रहा था
विनाश का वायरस
आदमी की तलाश मेंआदमी
अपने ही पिंजरे में क़ैद थाप्रकृति, पशु-पक्षी
उन्मुक्त होकर हँस रहे थेपरिवर्तन का पहिया
घूमता...
यह कैसा दौर है
चलो विस्थापित हो जाएँ कहीं
दिखावटी मुखौटों से दूर,
दम घुटता है यहाँ
विचारों की अशुद्धता में-
यह महामारी का दौर है।जब टूट रही थीं साँसें
घिनौनी मानसिकता का ही
वज़न...
कोरोना काल में
बैठ गयी है जनपथ की धूल
गंगा कुछ साफ़ हो गयी है
उसकी आँख में अब सूरज बिल्कुल साफ़ दिखने लगा है।
पेड़ों के पत्ते थोड़े और हरिया गए...
राहुल बोयल की कविताएँ
1नदियों में लहलहा रहा था पानी
और खेतों में फ़सल,
देखकर हर ओर हरियाली
हरा हो ही रहा था मन
कि अचानक फट पड़ता है
बेवक़्त काला पड़ा हुआ...